Priyamvada Saxena एक अधिवक्ता हैं और चिन्तक भी..उन्होंने किया है ध्यानाकर्षण इस महत्वपूर्ण विषय की दिशा में..
दर्द को मुस्करा कर सहना क्या सीख लिया
हमें तकलीफ ही नहीं होती सबने ये समझ लिया !
क्या ये असमानता नहीं है जीने का अधिकार नहीं छीना जा रहा समाज में असमानता तो अभी भी है सामान्य वर्ग के साथ अत्याचार है क्या इनके जनरल केटेगरी के अंदर बगावत की ज्वाला नहीं भड़कती होगी आखिर ये भी तो इंसान हैं ऐसा व्यवहार करके भेदभाव पूर्ण व्यवहार करके सामान्य वर्ग को आंदोलन की तरफ ढकेला जा रहा समानता का अधिकार पाना हमारा हक है सब आंदोलन करते हैं बगावत करते हैं तो हम जनरल केटेगरी क्यों नहीं कर सकते ?
यही आरक्षण वाले स्टूडेंट्स आगे चलकर जब डाक्टर बनते हैं तो लोगों को मौत के घाट उतारते है क्योंकी नालेज है नहीं आरक्षण में सेलेक्ट हो गये इंजीनियरिंग वाले ठीक से पुल नहीं बना पाते पुल गिरने से लोगों को मौत देते हैं प्रशासनिक अधिकारी अपराध स्मगलरों माफियों आतंकवाद पर अंकुश नहीं लगापाते नालेज के आभाव उसमें पब्लिक मरती है भृष्टाचारी पनपती है
एडवोकेट अरविन्द शुक्ला की कलम से
क्या गुजरती होगी इनके पेरेंट्स पर
IIT JEE Main 2025 के परिणामों ने न केवल लाखों छात्रों की मेहनत पर
#प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है, बल्कि हमारी
#शिक्षा #व्यवस्था की वर्तमान दिशा पर भी
#गंभीर सवाल उठा दिए हैं।
यह मात्र आंकड़े नहीं हैं। यह उन युवाओं के सपनों, संघर्ष और समर्पण की कहानी है जो रात-रात भर जागकर, परिवार की आर्थिक तंगी को अनदेखा कर सिर्फ एक ही सपना देखते हैं – “कुछ बनकर दिखाना।”
लेकिन आज सवाल यह है कि क्या
#योग्यता अब भी इस देश में मायने रखती है?
यह क्या है अगर योग्यता का
#अपमान नहीं?
जब एक सामान्य वर्ग (General Category) की छात्रा 90 परसेंटाइल लाकर भी योग्य नहीं मानी जाती, और एक अन्य छात्र 47 परसेंटाइल के साथ प्रवेश के योग्य ठहरा दिया जाता है, तो यह केवल एक परीक्षा नहीं, बल्कि *merit* की मौत है।
कहा जाता है कि **जाति मंदिर में नहीं पूछी जाती, लेकिन प्रतियोगी परीक्षा में हर कदम पर पूछी जाती है। जाति के आधार पर सीटें आरक्षित हैं, अंक में छूट है, फीस में छूट है, कट-ऑफ में अंतर है, और सुविधाओं की भरमार है।
लेकिन सवाल यह है कि *गरीब सवर्ण क्या करें?
ना उन्हें कोई छूट मिलती है, ना कोई सहानुभूति, ना ही कोई आरक्षण।
वे अगर गरीब हैं, तो सिर्फ गरीब नहीं – *”अयोग्य”* भी हैं, क्योंकि उनकी जाति “सामान्य” है।
क्या यही सामाजिक न्याय है?
हम यह नहीं कह रहे कि पिछड़े वर्ग को अवसर न मिले।
मदद मिलनी चाहिए – लेकिन उसकी बुनियाद *आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन* पर होनी चाहिए, न कि जन्म के आधार पर।
आज सवाल पूछना ज़रूरी है
– क्या 90 परसेंटाइल लाने वाले छात्रा का दोष सिर्फ उसका सामान्य वर्ग से होना है?
– क्या यह राष्ट्र केवल जातिगत पहचान के आधार पर आगे बढ़ेगा?
– क्या ये आरक्षण कभी समाप्त होगा या यही पीढ़ियों तक चलता रहेगा?
**अब वक्त आ गया है – नीति की पुनर्समीक्षा का।**
जरूरत है एक ऐसी व्यवस्था की, जहाँ *योग्यता, मेहनत, आर्थिक स्थिति और सामाजिक परिस्थितियाँ* – चारों को मिलाकर फैसला लिया जाए।
ताकि न्याय सिर्फ नाम का न हो, बल्कि वास्तविक रूप से सबके लिए हो।
**क्योंकि देश तभी आगे बढ़ेगा, जब हर युवा को समान अवसर मिलेगा—बिना किसी जातिगत भेदभाव के?
(प्रियंवदा सक्सेना & ए़डवोकेट अरविन्द शुक्ला)