Sunita Singh writes: देखा जाये तो कृत्रिम श्रंगार उन लोगों की ही आवश्यकता है जिन्हें लगता है ईश्वर ने उन्हें सौन्दर्य का उपहार नहीं दिया है..सौन्दर्य तो सादगी में ही है !
कल रात एक विवाह समारोह में जाना हुआ। अमूमन ऐसे मौकों पर मुझे तैयार होने में देर नहीं लगती।साड़ी से मिलते-जुलते रंग की चूडिय़ाँ,हल्के -फुल्के आभूषण और माथे पर मैरून कलर की बड़ी सी बिंदी। कोई क्रीम,मॉइश्चराइजर, लिपस्टिक, काजल नहीं। हेयर स्टाईल भी कभी नहीं बदलती। लंबे बालों की वही ढीली सी चोटी जो आखिर में अधखुली छोड़ दी जाती है।सालों से यही होता आया है।
जब नवविवाहिता थी,तब भी।
तब किसी महिला ने एक पार्टी में तंज कसा था
” बिल्कुल दुल्हन जैसी नहीं लगती…”
आज भी यह सोच कर आश्चर्य होता है कि बाईस-तेईस बरस की आयु में भी मैं उस कमेंट से रत्ती भर विचलित नहीं हुई थी। हालांकि तकरीबन चालीस-पैंतालीस बरस की वह महिला मुझे इमैच्योर सी लगी थीं। यह भी लगा था कि उनकी/उन जैसों की और मेरी दुनिया अलग है। खुद को लेकर मेरा आश्वस्ति-बोध और आत्मविश्वास …तब भी गहरा था,आज भी गहरा है। कृत्रिमता, हमेशा से मुझमें विरक्ति का भाव जगाती आई है। चाहे यह कृत्रिमता सोच की हो,बोलचाल की हो,हावभाव की हो ,रहनसहन की हो या वेशभूषा/श्रृंगार की हो।
कल के फंक्शन के रात्रिभोज में कई परिचित/अपरिचित चेहरों से सामना हुआ। उस भीड़ में एक परिचित से चेहरे वाली अपरिचित महिला ने जब आकर कहा ” पहचाना मुझे ?” तो मैं चौंक पड़ी। यूँ ही दिन ब दिन कम होती जा रही याददाश्त ने बहुत कोशिश करने पर भी पटखनी दे दी। उस महिला ने ही अंततः मुझे उबारा
” डॉ. …. के क्लीनिक में मैं रिशेप्शन डेस्क पर काम करती हूँ। आपको दो-तीन बार वहीं देखा है। मैं तो देखते ही पहचान गई आपको।”
मैं अप्रस्तुत सी हो आई। कहा
” सॉरी,मुझे अब याद आ गया। पर आपने कैसे याद रखा मुझे? कितने ही तो लोग आते-जाते रहते हैं क्लीनिक में…”
वह थोड़ी चुप सी हो आईं। फिर कहा
” मैम! आप बड़ी सोबर दिखती हैं। क्लीनिक भी आईं थीं तो आपकी सादगी ने ही मेरा ध्यान खींचा था। सिर्फ वेशभूषा की सादगी ही नहीं, आपके बातचीत करने के तरीके,आपके व्यवहार में भी बहुत अपनापन है।यहाँ भी देखिए न! आप शादी की रिशेप्शन पार्टी में आई हैं और कितनी सिंपल…”
मैंने हँस कर उन्हें गले से सटा लिया। वह भी किसीअंतरंग सखी सी लिपट गईं।
अचानक उत्सव की वह संध्या… बड़ी सुहानी हो उठी और बरसों पहले…बंगाल प्रांत की एक सुदूर कोलमाइंस की टाऊनशिप की एक संध्या से जा मिली है। ऑफिसर्स क्लब के हॉल के एक कोने में तेईस बरस की वह नवविवाहिता,शरमाई सी खड़ी है। सामने एक नई दुनिया है। वह उससे सरोकार बैठाने के जतन में असहज सी हो रही है। तभी एक तंज उड़ता सा आता है और उसके आत्मविश्वास को खरोंचता सा निकल जाता है।
क्या वह अपने आप को बदलेगी ? जवाब स्पष्ट ना है।
अट्ठाईस बरस बीत जाते हैं। और यह आज की शाम है।
इस स्त्री ने मुझसे कुछ शब्द कहें हैं।ये शब्द नहीं हैं मानों मेरे सामने रखा दर्पण है। मैं इसमें स्वयं को साफ साफ देख पा रही हूँ।
जीवन के 52 वें वर्ष में भी मैं ,स्वयं को बचा कर रख सकी हूँ,इसका मुझे अभिमान है।
यह कल शाम की तस्वीर है जो इस लेख के साथ प्रस्तुत है।