Sunita Mishra का यह मध्यप्रदेश की आंचलिक भाषा से सज्जित हास्य-व्यंग्य मिश्रित कथारूप संदेश बहुत कुछ कहता है..
हम आपन रिक्सा घर से बाहर निकाल लिए,सोचे आज संक्रांति परब है। दिन भर में चार -पाँच सौ रूपया कमाय लैहैं,बिटिया और छुटकी नतनिया खातिर झुनझुना, कपड़े ,मिठाई लेके संक्रांति मिल अइहैं।
एही सोच के, जैसेई रिक्सा पर बैठ पैडल मारा कि सीरी हवा हमें गए बरस की संक्रांत याद दिलाय गई ।
एही बिरिया रही,—-रमिया हमाई हथेली पे अपनी पाजेब थमाय के बोली थी -” बिटिया की ससुराल में पहली संक्रांत होइए।बाके लाने साड़ी, मिठाई और दामाद जी के हाथन में कम से कम इक्यावन रुपय्या तो धरे का परी।”
” पाजेब अपने कने रखो रमिया। मिठाई से काम चला लेंहें।”
“रसम-रिवाज निभाय जात हैं।देखो हमाओ जी न दुखाओ। पतो नाय तुमे!औरतन के जी दुखाबे वाले को बान सैय्या मिलत है।”
” बान शैय्या?जे का होत है?”
“अरे–मास्टर जी को मोड़ा, वोई—जो किस्से कहानी लिखत है,बाने बताओ। भीसम महराज ने अम्बा को ठुकराव, खपसूरत गंधारी को अंधे से बियाह दओ,कुंती मैय्या से बाको बिटवा करन को मिलबे न दओ।बिनने औरतन को जी दुखाव, साप लगा,बान सैय्या पे तड़पत पड़े रहे।”
“पागल है तैं तो।”हौले से चपतियाय दिए हमने रमिया के गाल। का पतो थो जे रमिया की आखरी संक्रांत हुईहै।
पाजेब बिकी -साड़ी, मिठाई और चंद रूपये में।
रस्ते में दो सवारियों से सत्तर रुपय्या की आमद भई । तीसरे सेठ जी हथे , दो आदमियों के बजन बराबर।तीन किलोमीटर दूर पहाड़िया पार काली माता के मंदिर जाय का था ।कठिन चढ़ाई औ सेठ जी के बचन बान, चाबुक की नाइ पीठ पर परन लगे।”जल्दी-जल्दी पैडल मारो जी, रिक्शा पहली बार चला रहे क्या?” सूरजभगवान,आकास से पहाड़िया के पत्थर तपा रये । गरमी से,हमाये पिरान मनो अब निकले कि तब निकले,गला सूख गओ।रिक्सा मंदिर के दरबज्जे रुका, सेठ ने बीस रूपय्या हमाये हाथ पे रखे बोले -“जा दौड़ कर ताजी माला ले आ,दस मिनिट बाद मंदिर के पट बंद हो जाएंगे।”हम अपनों पूरो दम लगाय के दुकान तरफ दौड़े। काली माई के कसम,लौटे तो गोड़ काँप रये बदन हाँफ रओ,हाय री किस्मत।पट बंद होय गए मंदिर के।
“अब काय के पैसे लेगा रे। माता के दर्शन तो हुए नहीं.”कहत भये सेठ दूसर रिक्सा पर जा बैठे।
हाड़-हाड़ पिरा रओ, रिक्सा चलाय की हिम्मत न बची। अब का मो लेके जेहें बिटिया के घर।हम सड़क के ऊ छोर किनारे पर रिक्से को खड़ा किए औ निढाल उसी पे पसर गए।
रमिया छिमा करना, तुम तीनों का जी दुखाय हैं हम। पर —जे ढलता साठा सरीर,जे रसम-रिवाज, घुनैटा अकेलापन, अब हमसे निभाव न हो पाई। हमहूँ तो बानसैय्या पर परे हैं।
(सुनीता मिश्रा, भोपाल)
(इस विश्व के प्रथम मात्र-महिला मंच OnlyyWomen पर धरा की प्रत्येक महिला लेखिका व पाठिका का ससम्मान स्वागत है !!)