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Sunday, December 14, 2025

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Story by Rashi Singh: औकात

Story by Rashi Singh: .. लेकिन असल में औकात तो उसी की बड़ी है… मुझे जहाँ भूषण के सामने अपनी जरूरतों के लिए हाथ फैलाना पड़ता है… वहीं वह खुद आत्मनिर्भर है..
स्नेहा नहाकर अपने रूम में आई और ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी होकर मैकअप करने लगी । अभी अभी भूषण उसके पति ऑफिस को निकले थे। दोनों बच्चे स्कूल जा चुके थे।
सुबह ही सुबह सबका लंच, और ब्रेकफ़ास्ट बनाते बनाते ही समय निकल जाता है इसलिए वह बाद में ही नहाती है और तैयार होती है क्योंकि तब तक काम वाली बाई भी आ जाती है।
“ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग… आ रही हूँ प्रीति…. सांस तो ले ले। ” घंटी की नोनस्टॉप आवाज पर झल्लाती हुई वह दरबाजे की तरफ लगभग भागते हुए गई और दरबाजा खोलते ही प्रीति पर बरस पड़ी….
“तुम्हारे मन में शांति नहीं है.?… आवाज दिये जा रही हूँ … कि आ रही हूँ… आ रही हूँ और तुम हो कि सुनती ही नहीं… मैरिड हूँ भाई… हर समय घर में किसका काम पूरा करने का हुक्म सुनना हैं… इसलिए अलर्ट रहना पड़ता है। “दरबाजा खोलते ही स्नेहा उस पर बरस पड़ी।
” अरे भाभी जी… मुझे लगता है कि एक बार घंटी दबाने पर क्या पता आपको आवाज आई या नहीं आई…. इसलिए बार बार दबाये जाती हूँ… मैं तो सभी के घर ऐसा करती हूँ… बाहर आवाज नहीं आती न..। “प्रीति अपनी रौ में बोले जा रही थी।
” घंटियाँ घर में इसलिए लगाई जाती हैं कि जब कोई बाहर से आये तो हमको पता चल जाए कि दरबाजे पर कोई है… न कि पूरी गलियों में शोर मचता रहे। “स्नेहा ने हंसकर समझाते हुए कहा तो प्रीति हंस पड़ी।
” आप भी न भाभी जी… आठ साल हो गए आपके घर काम करते हुए… बिल्कुल वैसी की वैसी ही हो… एकदम फनी… यहीं हंस लेती हूँ मुझे जितना हंसना होता है… वाकि कि मालकिने देखती भी नहीं हम जैसे छोटे काम करने वाले लोगों की तरफ…!
“प्रीति ने झाड़ू लगाते हुए कहा इस बार वह थोड़ी सी उदास हो गई थी।
” वैसे भाभी जी एक बात बताऊँ? “
“हां बोल दे… कोई अरमाँ रह न जाए तेरे दिल में। ” स्नेहा ने बालों में कंघी करते हुए हँसते हुए कहा।
“आप पर यह लिपिस्टिक बहुत अच्छी लगती है। ” प्रीति ने मुस्कराते हुए कहा।
“अरे नजर लगायेगी क्या? ” प्रीति खिलखिलाकर हंस पड़ी।
“तु ले जा यह लिपिस्टिक…। ” स्नेहा ने हँसते हुए कहा तो प्रीति हँसते हुए बोली…
“अरे भाभी जी… मेरी औकात कहाँ है कि मै इतनी महंगी लिपिस्टिक लगाऊं? ” वह सकपकाते हुए बोली।
“बच्चों की पढाई लिखाई और दो वक्त की रोटी में ही निकल जाती है हम दोनों की कमाई । ” वह काम करती जा रही थी और अपनी गरीबी का रोना भी रोती जा रही थी।
“बस यही तो रोना है तेरी सोच का प्रीति… देख तु मेहनत करके कमा रही है… तेरे पास तेरा पैसा है… तु किसी के सामने हाथ नहीं फैलाती… औकात तो तेरी ही खूब बड़ी है। ” स्नेहा ने सच बात को बड़े साधारण तरीके से कहा लेकिन प्रीति की समझ कुछ नही आया वह काम करके चली गई।
उसके जाते ही स्नेहा सोफे पर बैठ गई और सोचने लगी… कितना फर्क है मेरी और प्रीति की औकात में… मेरी दिखावटी चमक दमक उसको अच्छी और सच्ची लगती है… लेकिन असल में औकात तो उसी की बड़ी है… मुझे जहाँ भूषण के सामने अपनी जरूरतों के लिए हाथ फैलाना पड़ता है… वहीं वह खुद आत्मनिर्भर है… लेकिन उसको पता नहीं है… काम कोई भी हो छोटा या बड़ा नहीं होता… बस आत्मनिर्भरता बहुत जरूरी है।
स्नेहा ने एक गहरी सांस ली और फिर से अपनी दिनचर्या में रम गई।
(राशि सिंह, मुरादाबाद)

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