15.4 C
New York
Sunday, June 15, 2025

Buy now

spot_img

Story by Medha Jha: नायक

 

Story by Medha Jha: मेधा झा की कलम से पढ़िए ये कहानी और अनुभव कीजिये कि शब्दों में जीवन होता है..

श्रीनगर के डल झील में घूमते हुए निहार रही थी जया इस अद्भुत प्रदेश की नैसर्गिक सुंदरता को। कल्पनातीत, अद्वितीय। शांत झील में चल रहे शिकारे के इर्द गिर्द पानी में कई सारे लोग बाज़ार लगाए हुए थे और उनके बीच इस शांत झील में बैठी जया का मन पहुँच गया था अपने घर मम्मी-पापा के पास। कितना परिचित सा लग रहा था हर दृश्य उसे। कहाँ देखा उसने इसे? कश्मीर की पहली यात्रा थी उसकी , लेकिन आश्चर्य है चाहे इसके शानदार हिमाच्छादित चोटियाँ हो, या शालीमार – निशात बाग़, सब देखा सुना लग रहा था। कल पहलगाम में हिमालय की इस शुभ्र चोटियों को देखते हुए बरबस अधर पर आ गए थे पापा के ओजस्वी मधुर आवाज में सुनी महाकवि निराला रचित ये पंक्तियाँ, जो बचपन से याद थी उसे :
“मुकुट शुभ्र हिम तुषार,
प्राण प्रणव ओंकार,
ध्वनित दिशाएँ उदार,
शतमुख-शतरव-मुखरे !
पहुँच गई बचपन के उसी क्षण में जया। सुंदर सुदर्शन लंबे पापा के अभ्यस्त हाथों से फिसलता चला जा रहा था पेन्सिल सादे कागज पर और दिल थामे बैठे थे दो बच्चे उस कागज पर उकेरती आकृतियों को एकटक ध्यान से देखते हुए। सुंदर पहाड़,पेड़ पौधे, झील, हाउस बोट और चलता शिकारा। अब बन रहा था चित्र दो बच्चों का मम्मी पापा के साथ। चित्र तैयार था और जिसके पात्र सारे परिचित ही थे।
” ये है कश्मीर। धरती का स्वर्ग कहते हैं इसे। यहाँ इस तरफ है निशात बाग और इधर है डल झील। और देखो ये रहा डल झील में चलने वाला शिकारा, जिस पर बैठे हैं मम्मी -पापा और दो बच्चे। हमलोग घूमने जाएँगे श्रीनगर।”
आह्लादित दोनों बच्चे पहुँच चुके होते उस समय तक कश्मीर में और महसूस कर रहे होते कहानी और चित्र में वर्णित जगह को। उस समय इतना प्रचलन ही कहां था घूमने का हरेक छुट्टियों में।
अचम्भित सी थी जया। गूगल और नेट से बहुत दूर उनके बचपन को कल्पना के इतने जीवंत रंग से रंगा पापा ने कि आज आँखों के समक्ष दृश्य उसे बिल्कुल देखे से लग रहे थे। गर्व से भर उठी तत्क्षण वह और ईश्वर को कोटिशः धन्यवाद दिया उसके मन ने कि ऐसे विलक्षण प्रतिभा की पुत्री होने का गौरव मिला उसे। उसका तो जीवन ही इसी गर्व से भरा रहा है कि वह एक ऐसे पिता की पुत्री है जो शिक्षा, संगीत, चित्रकला में अद्भुत प्रतिभा के धनी रहे हैं और आज भी उसके लिए पापा के प्रोत्साहित करने वाले शब्द विश्व के किसी भी बड़े प्रमाण पत्र से ज्यादा महत्वपूर्ण रहे हैं।
अचानक हंसी आ गई जया को। सबसे बड़ी बात कैसे भूल सकती है वो, उसके सबसे बड़े श्रोता भी तो पापा ही हैं बचपन से आज तक। बचपन की हरेक तश्वीर में उसका बोलता हुआ और पापा का गौर से सुनता हुआ चेहरा ही तो देखा है। अभी भी जब छुट्टियों में घर जाती है तो सारा काम छोड़ कर पापा उसकी सारी बातें सुनते हैं। मज़े की बात तो ये हैं कि खाना खाते हुए भी अगर जया की चर्चा जारी रही तो हाथ में निवाला लिए पापा पूरा ध्यान उसकी तरफ दिए रहते हैं ऑंखें उसके चेहरे पर टिकाये। फिर मम्मी को कहना पड़ता है कि निवाला तो मुंह में डालिये, अभी कहानी चलने वाली है। यही वजह रही कि आज भी कोई उसकी बात ध्यान से नहीं सुने, तो तिलमिला जाती है जया।
अब कार बढ़ रही थी शंकराचार्य के मठ की तरफ और जया डूबी थी श्रीनगर की सुंदरता में। अधर गुनगुना रहे थे – ” आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की….।” ये गीत भी तो पापा ने ही सिखाया था दोनों बहनों को और प्रदीप जी रचित गीत के हरेक पद की सुंदर व्याख्या भी की थी पापा ने जब छोटी सी थी जया। जीवन के हरेक सुन्दरतम क्षण में उसे मम्मी पापा ही याद आते हैं और उसकी यही इच्छा होती है कि अगली बार उनके साथ ही इन स्थान पर आऊं।
कितना समृद्ध रहा है उसका जीवन। ऐसा बचपन तो बड़े बड़ों को नहीं मिलता होगा। फिर याद आया वो दिन भी उसे। स्वतन्त्रता दिवस की तैयारी चल रही थी विद्यालय में। फ़िल्मी संगीत के प्रबल विरोधी प्राचार्य महोदय का गंभीर स्वर गूंजा -” आपमें से कौन भाग लेना चाहता है प्रभात फेरी के गीत को गाने में?” एक दो आठवीं- नवी के बच्चों ने हाथ उठाया। प्राचार्य ने पूछा कि कौन सा गीत गाना चाहते हैं। कोई तैयारी के साथ नहीं था। तभी तीसरे कक्षा में पढ़ती जया ने हाथ उठाया। मुस्कुराते हुए प्राचार्य ने उसे अपनी तरफ बुलाया – ” आप बहुत छोटी हैं। वैसे कौन सा गीत गा सकती है?”
“सर, मैं हिमाद्रि तुंग श्रृंग से गाना चाहती हूँ।” आत्मविश्वास से भरे स्वर में जया ने उत्तर दिया।
“श्री जय शंकर प्रसाद रचित?” प्राचार्य को विश्वास नहीं हो रहा था इस छोटी सी बच्ची के विश्वास पर।
“जी, हाँ।”
“क्या अभी गाकर सुना सकती हैं आप?”
“हाँ, बिल्कुल।”
और फिर पापा के सिखाये स्वर उसी बुलंदी एवं शुद्ध उच्चारण के साथ गूंज रहे थे विद्यालय के प्रांगण में –
“हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती
‘अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!’
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ, विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी!
अराति सैन्य सिंधु में, सुवाडवाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो – बढ़े चलो, बढ़े चलो!”
पूरा विद्यालय शांत होकर सुन रहा था और शांति भंग हुई प्राचार्य के ताली से।
” इस बार प्रभात फेरी में यही गीत गाया जाएगा।आपमें से कोई और याद कर सकता है यह प्रयाण गीत ताकि जया को साथ मिल सके।”
फिर कुछ कहने के लिए हाथ उठाया जया ने।
“हाँ, बोलो जया।”
“सर, मेरे साथ मेरी बहन गायेगी।”
“कौन, चित्रा?”
अब और अचम्भित थे प्राचार्य। छह वर्षीया छोटी बहन उतने ही शुध्द आवाज में गा कर सुना रही थी यह क्लिष्ट हिंदी में लिखा गीत।
पिता का नाम लेते हुए सबके समक्ष खूब प्रशंसा करते हुए कहा उन्होंने – ” स्वर्ण पदक प्राप्त पिता की पुत्रियां हैं, प्रतिभा तो होगी ही।”
प्रारम्भ हो चुका था उस गर्व का, जो अब कायम रहने वाला था ताउम्र।
(मेधा झा)

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

0FansLike
0FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles