Sanathan & Mahakumbh: 144 साल बाद महाकुंभ आया, लेकिन ऐसा लगा कि समय चक्र उल्टा घूम गया। कुंभ नगरी में सनातन का मंथन हो रहा था—परिणाम क्या निकलेगा, यह तो कोई नहीं जानता, लेकिन दृश्य रोचक थे।
शास्त्रों में मंथन से अमृत और विष दोनों ही निकले थे। यहाँ भी कुछ वैसा ही हो रहा था। कहीं भभूत रमाए साधु पुलिस की हिरासत में थे, तो कहीं ट्रेंडिंग मोनालिसा माला बेच रही थी। और हाँ, आईआईटी बाबा! जो कभी विज्ञान और तर्क के मंदिर में पूजा करते थे, अब आस्था के संगम में भटक रहे थे।
नारद का पुनर्जन्म या मीडिया की महिमा?
पहले जो काम महर्षि नारद करते थे—अर्थात्, देवताओं और असुरों के बीच संवाद, विवाद और वैचारिक मंथन—वही काम अब मीडिया कर रही थी। अंतर बस इतना है कि नारद जी के संवाद में मंगल था, और यहां केवल टीआरपी की बेलगाम लहरें थीं।
मीडिया ने तय कर लिया था कि कुंभ में कौन ‘पाखंडी’ है और कौन ‘योग्य’। हर न्यूज़ चैनल का कैमरा या तो मोनालिसा पर टिका था, या आईआईटी बाबा के चेहरे पर। सवाल यह नहीं था कि गंगा किनारे क्या साधना हो रही है, सवाल यह था कि मोनालिसा की हंसी कितनी रहस्यमयी है और आईआईटी बाबा का अतीत कितना ‘विज्ञान बनाम आध्यात्म’ वाला है।
शिवभक्ति की परीक्षा जेल में
कुंभ में कुछ युवा ऐसे भी थे जो शिवभक्ति की परीक्षा जेल की कोठरियों में दे रहे थे। पुलिस ने सैकड़ों साधुओं को पकड़कर सलाखों के पीछे डाल दिया, लेकिन मीडिया को इनमें सिर्फ ‘गांजे’ की गंध आई। वे यह नहीं देख सके कि ये वही लोग हैं, जो भौतिक सुखों को त्यागकर शिव की साधना कर रहे हैं। आखिर त्याग भी वही कर सकता है, जिसके पास पहले कुछ हो। दरिद्र आदमी त्यागेगा क्या?
लेकिन कुंभ का असली प्रश्न यह नहीं था। असली प्रश्न यह था कि पाखंडी कौन है? क्या वे साधु, जो अपनी भभूत और जटाओं में संसार की माया से परे होने का दावा कर रहे थे, या वे लोग जो माया में लिपटे हुए इन्हें पाखंडी कहकर खुद को निष्पाप साबित करने में लगे थे?
मोनालिसा बनाम माला: आध्यात्म का सेल्फी पॉइंट
सबसे बड़ी विडंबना यह थी कि मोनालिसा, जो एक साधारण लड़की थी, मीडिया की वजह से एक प्रतीक बन गई थी। कोई उसे एक ‘विचित्र कथा’ की नायिका बता रहा था, तो कोई उसे ‘आधुनिक कुंभकर्णी’! हर दो मिनट में न्यूज़ चैनल उसका चेहरा दिखाकर सनातन के भविष्य पर बहस कर रहे थे।
क्या प्रयागराज से मोनालिसा को उसकी सहज जिंदगी से निकालकर एक झूठी मोह-माया में धकेलना सही था? क्या यह मंथन हमें आगे ले जा रहा था या फिर 144 साल पीछे?
मंथन का परिणाम
संभवतः दो शक्तियों का यह मंथन वही उत्पन्न करेगा, जिसके हम योग्य हैं। कुंभ में शिव और दक्ष, त्याग और तृष्णा, आस्था और आडंबर—सभी का संगम था।
अब यह हम पर निर्भर है कि हम इस महासंगम से अमृत ग्रहण करते हैं या हलाहल। मंथन जारी है, और अंत में जो निकलेगा, वही बताएगा कि हमने 144 साल बाद क्या पाया—मानवता, या बस एक और न्यूज़ हेडलाइन!
(मेनका त्रिपाठी)