17.3 C
New York
Saturday, June 14, 2025

Buy now

spot_img

Pradeepti Sharma writes: शादी – एक व्यापार : विवाह -एक संस्कार

Pradeepti Sharma की सार्थक कलम से पढ़िए परम्परा की भव्यता और दिखावे की फूहड़ता का अंतर..
पूंजीवाद और उपभोक्तावाद के काल में, मनुष्य अपने हृदय के मूल सिद्धांत को भूलकर एक व्यापारी बनता जा रहा है | जहाँ मनुष्य केवल एक प्रदर्शन की वस्तु मात्र रह गया है | उसका मोल सिर्फ़ उसकी रूप और देह, उसकी संपत्ति, और पैसा है | शादी के बाज़ार में वर हो या वधु, दोनों वस्तु मात्र ही हैं | दोनों के परिवार भी उन्हें उसी तरह प्रदर्शित करते हैं | और शादी के व्यापार में इन दोनों वर वधु नमक वस्तुओं का मोल लगाया जाता है |
इस बाज़ार में जो उत्सव होता है, वो सिर्फ़ एक अश्लील आडम्बर और बेहूदा ढोंग के अलावा कुछ नहीं | शादी की प्रक्रियी का एक भी पहलू किसी दिखावे से कम नहीं होता | और प्रतिदिन ये ढोंग और बढ़ता जा रहा | हर कोई खुदको बढ़ा और बेहतर दिखाने के लिए शादी में क्या क्या नहीं करता |
ऐसी बाज़ारू शादियों में सनातन धर्म की कोई झलक नहीं दिखती | दुल्हन का मेहेंगा लेहंगा, और रूप निखार के तरीके, शादी की रस्म के नाम पर सिर्फ़ अश्लीलता और तमाशा | मेहेंगे शादी स्थल, अनगिनत भोज्य पदार्थ, और चमक धमक भी इसी नुमाइश बाज़ार का हिस्सा है |
ऐसी शादियों में लोगों की भीड़ बहुत होती है, मगर आत्मीयता नहीं | कोई किसीसे मैत्री भाव से नहीं मिलता | सब झूठी हँसी और बनावटी बातें करते हुए नज़र आते हैं | अंदर द्वेष और घृणा लिए हुए एक दूसरे के प्रति शादी में भाग लेते हैं |
वर – वधु को एक भी विवाह वचन की जानकारी नहीं होती, ना वो फेरों के समय इन पर कोई ध्यान्ल देते हैं | बस एक प्रक्रिया पूर्ण करते हैं बिना उससे मन से जुड़े |
इसलिए ऐसी शादियों में प्रेम भाव और समर्पण की इच्छा नहीं होती | और aise लोग ना सभ्य परिवार बनाते हैँ और ना ही सभ्य समाज |
हम जब विवाह की बात करते हैं-
विवाह प्रेम भाव और समर्पण की इच्छा से किया जाता है | ये एक संस्कार है जो धर्म की धरोहर पर निर्माण करता है एक सभ्य समाज का |
यहाँ दो कविताओं द्वारा विवाह को बेहतर तरह से समझाने की कोशिश की है-
“आहुति “
प्रेम का ये तप,
एक पवित्र क्रिया,
जीवन के अस्तित्व का,
एक अडिग आधार,
जिसको आज नाम दिया,
विवाह के बंधन का |
रात्रि के पावन पहर में,
घनघोर तिमिर की बेला में,
प्रज्वलित ये लौ,
आज साक्षी है,
कि अग्नि अनिवार्य है,
इसका ताप भी,
हर ग्लानि हर रंज को,
भस्म करने के लिए,
आहुति ज़रूरी है,
अभिमान की,
इस तप को सिद्ध करने में,
और,
अग्रसर ये आँच,
मद्धम मद्धम जीती हुई,
सहजता से ले जाती,
समावेश कि ओर,
आत्मन से आत्मन को,
जन्म जन्मांतर के लिए,
प्रेम के तप को,
देकर एक यतार्थ अभिप्राय |
“कुमकुम भाग्य”
बेला मिलन की आ गई,
रुत सुहानी सी छा गई,
श्रृंगार करुँगी आज मैं,
मीत से मिलूँगी आज मैं,
रेन की गहरी काली स्याही से,
नैनों का काजल बनाऊँगी मैं,
सूर्यास्त की चमकती लालिमा से,
फीके होठों में रंग लाऊँगी मैं,
सावन के तृप्त पत्तों से,
हरी हरी चूड़ियाँ बनाऊँगी मैं,
आसमान में दमकते सितारों से,
ये ओढ़नी सजाऊँगी मैं,
गुलाब के मेहकते रस से,
इस देह को सुगन्धित बनाऊँगी मैं,
मोगरे की कच्ची कलियों से,
केशों का गजरा बनाऊँगी मैं,
मेहंदी के ताज़े पत्तों से,
इन हथेलियों को रचाऊँगी मैं,
तोड़ चाँद के नूर,
पैरों की पैनजनिया बनाऊँगी मैं,
जल की सुनहरी तरंग से,
नासिका का छल्ला बनाऊँगी मैं,
तपती कनक सी इस भूमि से,
कान के झुमके बनाऊँगी मैं,
काली घटा के सिरे की रोशनी से,
मांग का लशकारा बनाऊँगी मैं,
फिर बैठुँगी समक्ष इस अग्नि के,
प्रीत की अखंड लौ जलाऊँगी मैं |
मगर ये श्रृंगार अधूरा है,
इसे पूर्ण कैसे बनाऊँगी मैं?
अब बारी है मीत की,
इस श्रृंगार को पूर्ण बनाने की,
परिणय के प्रतिक को,
मेरी कोरी मांग में सजाने की |
ह्रदय के रक्त सा ये सिन्दूर,
जब भरेगा मीत इस मांग में,
हया से पलके झुकाऊँगी मैं |
फिर कहेगा ये मन तुमसे –
“जीकर इस कुमकुम भाग्य को,
तुम्हारी संगिनी कहलाऊँगी मैं |”
(प्रदीप्ति शर्मा)

 

(इस विश्व के प्रथम मात्र-महिला मंच OnlyyWomen पर धरा की प्रत्येक महिला लेखिका व पाठिका का ससम्मान स्वागत है !!)

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

0FansLike
0FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles