29.4 C
New York
Monday, August 4, 2025

Buy now

spot_img

Poetry by Shalini Singh: संस्कृति-संरक्षण

(POETRY)

संस्कृति-संरक्षण

पीपल की दरख़्तों में अब वो भूत नहीं रहते
रहते अगर वो तो वृक्षों के अब ठूंठ नहीं रहते
गिद्ध औ बाज की नज़रों का भय नहीं हमें अब
क्योंकि ठूंठ पर पीपल के गिद्ध ,बाज नहीं रहते।

रात के सन्नाटे में अब वो सियार नहीं घूमते
घूमते अगर वो तो अब पहरेदार नहीं घूमते
बुजुर्गों की अंकुश भरी नज़रों का भय नहीं अब
क्योंकि पहरे पे चौखट के ये बुजुर्ग नहीं रहते ।

संस्कारों की चूनर में अब वो लाज नहीं रहती
रहती अगर वो तो बुलन्द आवाज़ नही रहती
रिश्ते-नाते सब गर्ज़ के ,टूट जाने का भय नहीं
क्योंकि अपनेपन की छांव वो अब नहीं रहती ।

थमी हैं तलवारें हर शख़्स की मुट्ठी में रंजिश लिए
गलाकाट प्रतियोगिता है अब धर्म की बंदिश लिए
इंसान की इंसानियत मिट रही ,दरिंदगी मन में भर रही
क्योंकि मन की अनसुनी कर खड़ा मद की जुम्बिश लिए ।

(शालिनी सिंह)

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

0FansLike
0FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles