मैं समय की साधिका हूँ
कृष्ण की आराधिका हूँ
द्रोपदी का चीर लिखती हूँ
राधिका का पीर लिखती हूँ
इस समय की चेतना का व्यास गढ़ लो
तुम सुनो जाकर ज़रा इतिहास पढ़ लो
पांडवों के धर्म के अवशेष रोये
जब दुशासन रक्त से ये केश धोये
जो तुम्हें लगता सदा हकदार हो तुम
पर ज़रा देखो स्वयं लाचार हो तुम
मैं समय को धीर लिखती हूंँ
द्रोपदी का चीर लिखती हूंँ
दूर हैं सारे भरम अब दूर हैं हम
पर सदा इस प्रेम से मजबूर हैं हम
तुम ज़रा जाकर सँभालो द्वारिका को
भूल जाओ तुम समय की राधिका को
काढ़कर अंजन नयन में प्रीत बोली
मैं विरह की हूं नदी पावन अबोली
हर नदी का तीर लिखती हूंँ
राधिका का पीर लिखती हूंँ
स्वप्न के चरखे पे उजला सूत काता
भाग्य को पर छल घृणा का मेघ भाता
सौंपकर खुद को तुम्हारे गीत गाये
प्रीत का माथे सदा चंदन लगाये
कृष्ण की जब तर्जनी पर पीर बाँधा
तर्जनी ने तब हृदय संकल्प साधा
प्रेम को जागीर लिखती हूंँ
द्रोपदी का चीर लिखती हूंँ
राधिका का पीर लिखती हूँ
(पूजा शुक्ला)