Poetry by Promila Shukla: एक गहन गंभीर कवितात्मक आकलन जीववन के अस्तित्व का भी और अस्तित्व की प्रकृति का भी..
‘आबद्ध’ हूँ पर मौन नहीं।
मैं खुद की वाणी रखता हूँ।
चोट खाये ज़ख्मों पर मैं,
कुछ मरहम भी रखता हूँ।
छीन ना ले मेरी आवाज़ को,
सदा चौकन्ना रहता हूँ।
अपनी प्रकृति से हूँ ‘आबद्ध’,
कुछ नहीं शिकायत करता हूँ।
संवाद उठे जो अंतर्मन में,
खुद ही सुलझाया करता हूँ।
मित्रों की तो बात है कितनी,
ग़ैरों को अपना लेता हूँ।
हूँ ‘आबद्ध’अपनी प्रकृति से,
कोई ना अंतर रखता हूँ।
देख समय के कठिन वार को,
सब्र के आँसू पी जाता हूँ।
नहीं समय एक सा रहता,
इससे ही मन बहलाता हूँ।
हूँ ‘आबद्ध’ अपनी प्रकृति से,
कठिन समय में जी लेता हूँ।