Pratibha Shrivastav की कविता में पढ़िये रिश्तों में द्वंद्व और मन में अंतर्द्वंद्व..
माँ-पापा मेरे भी हैं!
माँ-पापा उसके भी हैं!
बेशक उसके माँ-पापा को
मैं,अपने माँ-पापा
जितना प्यार नहीं कर पाई
पर,सम्मान में कभी
कोई कमी नहीं आने दी
दिन-भर माँ-पापा,माँ-पापा
कह उनके आगे-पीछे भागती फिरती
के,गलती से भी कोई गलती न हो जाए!
माँ-पापा मेरे भी हैं!
माँ-पापा उसके भी हैं!
गठबंधन से मिले
सारे रिश्ते स्वीकार कर
उसे निभाने का धर्म
मुझे संस्कार में मिला था,
मैं संस्कार को धर्म मानकर निभाती रही!
माँ-पापा मेरे भी हैं!
माँ-पापा उसके भी हैं
मैंने,उसके पिता को पिता कहा
माता को माता,
भाई-बहनों को भी बराबर का दर्जा दिया
क्योंकि मैं जानती हूँ…!
माँ-पापा मेरे भी हैं!
माँ-पापा उसके भी हैं!
उसने,मेरे माँ-पापा को
अलग-अलग सम्बोधन से पुकारा
तुम्हारी माँ..तुम्हारा बाप
फलां…फलां…फलां….कहता रहा,
गरजता रहा….
बस उसके मुख से नहीं नहीं निकला
तो… माँ और पापा,,,
माँ-पापा मेरे भी हैं!
माँ-पापा उसके भी हैं!
एक बेईमान सवाल आकर
मन का दरवाजा बार-बार खटखटाता रहता
मैं रिश्तें निभा रही या उसे ढोह रही…!
(प्रतिभा श्रीवास्तव अंश)