बचपन में जब मेरी कुछ सहेलियाँ,जो सरकारी अफसरों की बेटियाँ थीं,हर दो-तीन साल में उनके पापा का ट्रांसफर होता और वे चली जातीं एक नए शहर को!
और मैं सोचती थी, “कितनी किस्मतवाली हैं ये लोग! हर कुछ सालों में नई दुनिया, नए दोस्त, नए किस्से।”
क्योंकि तब जानती ही नहीं थी खानाबदोशों से जीवन के आयाम।
मैं भी चाहती थी कि एक दिन ऐसा आए जब मुझे भी बैग पैक करने पड़े- एक नए शहर के लिए!
उसके बाद पढ़ाई,जॉब,शादी… शहर बदलने का सिलसिला जो शुरू हुआ वो आज भी जारी है।
इंदौर, चेन्नई, दिल्ली, पुणे, बैंगलोर — फिर से इंदौर। फिर एक लंबी उड़ान…बोस्टन!
और फिर…
हर बार एक नए पते के साथ शुरू हुआ एक नया अध्याय। मगर अब ये किताब भारी लगती है।
शुरुआत में हर शहर का अपना एक अलग रोमांच होता था।वहाँ की भाषा, बोली वहाँ की गलियाँ, वहाँ के लोग।
मुझे हर जगह की संस्कृति, स्थापत्य कला, लोक जीवन और संगीत,वहाँ के इतिहास और रीति रिवाज़ों के बारे में जानना बेहद पसंद है।और लगभग हर जगह इस जिज्ञासा को समाधान मिला भी है।
दक्षिण भारत का प्राकृतिक सौंदर्य और स्थापत्य कला हो या महाराष्ट्र के किले,चांदनी चौक से लेकर लाल किला, परांठे वाली गली,सब अपने से लगते थे।
इंदौर तो घर है ही।
लेकिन स्थानान्तरण के कारण जगहें बदलती गईं, घर बदलते गए,सहेलियां छूटती गईं।
अब जब कुछ नया देखती हूँ, तो मन कहता है,-ये भी एक दिन छूट ही जाएगा।”
अब किसी भी चीज़ से लगाव नहीं होता।
न दीवारों से, न बालकनी से, न गली के मोड़ से, न आस-पड़ोस से।
सब जैसे रेत की तरह उंगलियों से फिसल जाते हैं।
वैसे भी सहेलियाँ मुझे घरघुस्सु बोलती हैं।
लेकिन अब लगता है, शायद ठहराव कोई जगह नहीं बल्कि एक मनःस्थिति है।
शायद ठहराव वहाँ है जहाँ दिल को सुकून मिलता है ।
ठहराव में जड़ें हैं, तो यायावरी में पंख।
और मैं दोनों को साथ लेकर चलने की कोशिश में हूँ।
(एकता कश्मीरे)