सुबह
स्याही सोखते सी
खींच लेती है रंग रात का
जैसे खाली कर देंगे जल
घूंट भरते बादल हों।
श्वेत पन्ने सा फैला दिन
कावड़ियों सी पंक्तियाँ
लिख रहा है, हरिद्वार
जैसे क़ोई कवि हों!
सुबह
गहरे कश की तरह
खींचती है उलझा गुब्बार,
फिर एक-एक कर
हवा में उड़ा रही साँसों के साथ
जैसे बीड़ी पीता मजदूर हों
सुबह
धनुष-बाण सी
खींचती है आत्मा को,
संधान करती है
कहती है:
“आज लक्ष्य भेदना है!”
जैसे क़ोई द्रोण हों!
सुबह
धीरे से हँसती है
मेंरे बड़बड़ाने पर
झुंझलाने पर
सोचते हैं, कसते खुद को,
पर इलास्टिक ढीली कर देते है रोज रोज
जैसे कि मैं हूँ!
(मेनका त्रिपाठी)