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Monday, December 15, 2025

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Poetry by Medha Jha: थोड़ा और नवीन हो जाती हूँ !

Poetry by Medha Jha: जीवन की यात्रा के साथ सकारात्मकता का हाथ पकड़ कर चलने वाली लेखिका मेधा झा की कविता के सहज सत्य को अनुभव कीजिये..

हर दिन उगते सूर्य के साथ
जनम लेती हूँ मैं,
प्राची की लालिमा बन कर
दिशाओं में बिखर जाती हूँ।
गर्मी की भरी दुपहरी में
पढ़ती हूँ पुरानी चिट्ठियों को,
बीते लम्हों को सोच कर मुस्कुराती हूँ,
थोड़ा और नवीन हो जाती हूँ।
मन के दराज में रखे
पुराने अल्बम के चित्रों को
देख कर स्मृतियों में गोते लगाती हूँ,
थोड़ा और नवीन हो जाती हूँ।
बातें करते हुए कॉलेज के मित्रों से,
सोलहवे वर्ष के खुमारी में
प्रवेश कर जाती हूँ,
फिर से षोडशी बन जाती हूँ।
नए सीखे हुए वीडीओ कॉल पर
किलकती हुई नानी को देख कर,
स्नेह के सौगातों में उतराती हूँ
फिर से नवीन हो जाती हूँ।
हर दिन वक्त का हथौड़ा
थोड़ा और गढ़ता है मुझे,
एक सुदृढ़ सांचे में ढल जाती हूँ,
हर बार और नवीन हो जाती हूँ।
उम्र के हर पायदान में बढ़ते हुए,
शुभकामनाओं के बारिश में,
सर से पाँव तक भींग जाती हूँ,
थोड़ा और नवीन हो जाती हूँ।
(मेधा झा)

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