Poetry के शाब्दिक सम्प्रेषण में दिव्या की कलम खोल रही है विक्टिम कार्ड खेलने वाली मादाओं की कलई..
विक्टिम कार्ड खेलती मादाएँ
रात दिन नग्न होकर
सोशल मीडिया पर नाचती ये मादाएं
एक टॉवल में
फेसबुक पर खुद परोसती ये मादाएं
अपनी देह के हर अंग को सार्वजनिक बनाती ये मादाएं
आखिरी हथियार लाती हैं
और वो हथियार भी इनकी देह है।
अपने नितांत निजी अनुभव को
सार्वजनिक बनाती ये मादाएं
जब मांग करती हैं सबसे संतुष्टि की
तब इनकी संतुष्टि सार्वजनिक हो जाती है
जिसे सार्वजनिक बना चुकी हैं ये मादाएं
ये भूल जाती हैं जो सार्वजनिक है वो निजी नही होता
इसलिए अपनी उस देह को , जो परोस चुकी हो तुम
अपने निजी कक्ष से सार्वजनिक कक्ष तक
उस देह को हथियार मत बनाओ
क्योंकि सार्वजनिक पर सब का अधिकार है
इसलिए थोपेंगे सर्व जन अपने विचार
तुम्हारी सार्वजनिक हो चुकी देह पर।
(दिव्या शर्मा)