प्रेम हमारा हिंदी व्याकरण की सन्धि जैसा ही रहा सदा
तुमने मेरी कठिन कविताओं के भावार्थ ढूंढे,
अनुवाद किये,
समास, अलंकार और रस
छाँट के लिख दिए,
शब्द ,व्यंजना ,विन्यास पर की टिप्पणियां,
छंद , दोहे और सोरठे में
अंतर करना सिखलाया
पर न जाने क्यों
न पहचानी तुमने सन्धियाँ
जो काव्य के पोर पोर में बिखरी पड़ी थीं।
प्रेम हमारा
हिंदी व्याकरण की सन्धि जैसा ही रहा सदा
जहां दो कोरे,
उछाह से भरे मन मिलकर
सदा रहे नए रूप लेने को तत्पर
जहां ‘अ’ और ‘ई’ मिलकर
‘ऐ’ बनने की प्रबल संभावना रही
जहां इक मन के विसर्ग
दूजे मन के किसी भी अक्षर से मिलकर
‘ओ’ को जन्म देते रहे
परंतु जब अहंकार के बादल ने
मन से मन तक के पथ को ढक लिया,
प्रेम का सूर्य छिप गया
तब सम्बन्ध ने रूप धरा
कर्मधारय समास का
जहां सदैव उत्तर पद की प्रधानता रही।
वे विग्रह पथ की ओर बढ़ चले
जहां भिन्न हुए पदों ने
अपने अपने अर्थ खो दिए
एक युग से प्रेम कविताएं नहीं लिखी गयी
देह से भिन्न मन पर
धरती का सूर्य पर से भरोसा उठ सा गया
अब
धरा में दबे बीजों में अंकुर प्रस्फुटन के लिए
विश्वास की नई फसल के लिए
सन्धियाँ फिर से पढ़ी जाएंगी..
(अंकिता चतुर्वेदी)