Poetry section में आज पढ़िए जीवन के समुद्री झंझावात में हमारी नैया हिचकोले खाते हुए भी निरंतर आगे बढ़ती जाती है..कालिंदी त्रिवेदी जी की कलम से -लहरों पर तिरती तरी हूं मैं!
लहरों पर तिरती तरी हूं मैं।
संघर्ष भरे इस जीवन में,
अनवरत जूझती फौजी हूं।
कभी इधर चली, कभी उधर चली,
स्वच्छंद पवन मन मौजी हूं।
आशा के स्वर्णिम पंखों से
उड़ती फिरती एक परी हूं मैं।
लहरों पर तिरती तरी हूं मैं।
बाधाएं आती जाती हैं ,
नित नई चुनौतियां लाती हैं।
कठिनाई से लड़ने की ,
दूनी शक्ति भर जाती हैं।
आंधी आये या झंझा हो,
तूफानों से कब डरी हूं मैं।
लहरों पर तिरती तरी हूं मैं।
कितनी ही राह कठिन होती,
मंजिल मुझे पास बुलाती है।
जलधर गर्जन तर्जन करते,
बिजली मुझे राह दिखाती है।
चलते रहने की लगन लिये,
प्रतिपल उमंग से भरी हूं मैं।
लहरों पर तिरती तरी हूं मैं।
कभी कोई किनारा आयेगा,
है ऐसी कोई चाह नहीं।
कब यह जीवन थम जायेगा,
इस बात की भी परवाह नहीं।
बढ़ाते ही रहना ध्येय मेरा ,
अब भी जीवट से भरी हूं मैं।
लहरों पर तिरती तरी हूं मैं।
दु:ख सुख के दो तट बंधों से
जीवन नदिया टकराती है।
विघ्नों को करती पार सदा,
इठलाती है बल खाती है।
ऐसी ही बहती सरिता हूं,
हर क्षण उत्साह से भरी हूं मैं।
लहरों पर तिरती तरी हूं मैं।
संकल्प सुदृढ़ हो हिय में अगर,
मानव सब कुछ कर सकता है।
गूंगा सुर में गा सकता है,
पंगु पर्वत चढ़ सकता है।
प्रभु की असीम अनुकंपा से
नन्ही दुर्वा सी हरी हूं मैं।
लहरों पर तिरती तरी हूं मैं।
(कालिंदी त्रिवेदी)