15.7 C
New York
Sunday, June 15, 2025

Buy now

spot_img

Mitali Raj Tiwari writes on her 30th B’day: जीवन को वैसे ही स्वीकार करती हूँ -जैसे वह मेरे पास आया है!

Mitali Raj Tiwari अपने जन्मदिवस पर पीछे मुड़ कर देखती हैं और फिर वो कहती हैं जो इस भावुक आत्म-संवाद की प्रथम पंक्ति है यहां नीचे ..

“मैं क्या बताऊं वो कितनी हसीन दुनिया थी – जो बढ़ती उम्र के हाथों ने छीन ली मुझसे…” – फ़िराक़ गोरखपुरी

एक वक्त था जब उम्रदराज होने की चाह थी। बड़ी उम्र का होने में एक उम्मीद दिखती थी। और फिर उम्र बढ़ने लगी।

धीरे-धीरे चलते हुए, ज़िंदगी अब उस मोड़ तक आ ही गई – जहाँ अगले हफ़्ते मैं तीस बरस की हो जाऊँगी। इन तीन दशकों में बहुत कुछ बदल गया है। अगर विज्ञान से पूछूं, तो शायद वो कहे – मेरी सारी कोशिकाएँ बदल चुकी हैं। पर जो भीतर है, वो अब भी वही है – थोड़ा थका हुआ, थोड़ा नया। आत्मा की कोरी स्लेट पर जो शुरुआती लकीरें खींची थीं, उनमें से कुछ वक्त ने मिटा दीं, कुछ मैंने खुद फाड़ दीं। जिस्म पर जो निशान हैं, वो किसी गवाही की तरह हैं – कि वक़्त गुज़रा है… चुपचाप, मगर दर्ज होता गया है.

न जाने कितनी निजी मान्यताएँ हैं जो तीस की उम्र को किसी अनकहे डर से देखती हैं – और कितने ही व्यवसायिक संसार हैं, जो चाहते हैं कि तीस की कोई छाया चेहरे पर न पड़े। जैसे उम्र कोई दोष हो, और अनुभव कोई भार।
मगर सच कहूँ – तीस कोई ठहराव नहीं। जैसे बीस कोई गंतव्य नहीं था, वैसे चालीस भी नहीं होगा। ये सब पड़ाव नहीं, बस कुछ रुकने की जगहें हैं… जहाँ से हम अपनी परछाईं को कुछ देर देखते हैं, फिर आगे बढ़ जाते हैं।
दैनिक जीवन की जो बारीक सूक्तियाँ हैं — वही अक्सर तीस को समझाने की कोशिश करती हैं। कहा जाता है कि:
• जीवन की हलचल थमने लगती है
• मन थोड़ा ठहरा हुआ हो जाता है
• अपने शरीर की भाषा समझ में आने लगती है
• इच्छाएँ साफ़ दिखाई देने लगती हैं
• और… सपने आना बंद हो जाते हैं

बचपन में जब हम उम्र को बड़े होते देखने की कोशिश करते थे, तो ये सूक्तियाँ किसी अलिखित नियम की तरह सामने रख दी जाती थीं – मानो तीस की उम्र आते-आते ज़िंदगी किसी किताब के आख़िरी अध्याय में पहुँच जाएगी। बीस की उम्र में, इन बातों को सुनते हुए, मैंने भी इन्हें मानना शुरू किया… या शायद मानना पड़ा।

बीसवें दशक में बहुत कुछ सीखा। नहीं, सच कहूँ तो सीखा नहीं… सिर्फ़ महसूस किया। जैसे कोई रास्ता जो बार-बार वही मोड़ दोहराता है, मगर हर बार थोड़ा बदल कर। हर बार उम्मीद के साथ एक नया सवाल जुड़ता रहा। और हर जवाब, अगले मोड़ पर फिर से बेमानी हो गया।

कभी-कभी लगता है – शायद मैं बहुत देर से बड़ी हुई। जैसे कुछ एहसास तब हुए, जब उनका वक़्त जा चुका था। या शायद वक़्त ही कुछ देर से आया।

अब, जब तीस की देहलीज़ पर खड़ी हूँ – तो कोई उत्सव नहीं है। कोई मोहर नहीं लग रही जीवन पर। कुछ बदल नहीं गया है। हाँ, कुछ थकावट है। कुछ स्मृतियाँ हैं, जो अब भी पीछा करती हैं।

पहले लगता था कि सभी को खुश रखना ज़रूरी है। अब लगता है, ये कोशिश ही सबसे बड़ी थकावट थी। अब उतना ही करना चाहती हूँ, जितना मन मान ले।
अब जानती हूँ कि कुछ जवाब नहीं मिलेंगे। कुछ रास्ते सिर्फ़ भटकने के लिए होते हैं। और कुछ लोग, जिनसे कभी बहुत जुड़ाव था – अब यादों में भी उतनी जगह नहीं मांगते।

बीस की उम्र में, जो बेचैनी थी – कुछ बनने की, कुछ पा लेने की – वो अब भी है। मगर उसका स्वर बदल गया है। अब वो चीख़ती – दौड़ती नहीं, बस धीमे से सरकती है भीतर।

तीस कोई शुरुआत नहीं, कोई अंत भी नहीं। ये तो शायद वो जगह है जहाँ बैठकर पीछे देखा जा सकता है – बिना पछतावे के, बिना जल्दबाज़ी के।

अब लगता है कि ज़िंदगी कोई सीधी रेखा नहीं है। ये वृत्त है – जहाँ हम बार-बार लौटते हैं उन्हीं सवालों के पास, जिन्हें कभी बच्चों की तरह डरते-डरते पूछा था। अब वही सवाल दोस्त लगते हैं। अपने से। पुराने।

कुछ बातों को लेकर अब भी संशय है – जैसे क्या सब सही दिशा में चल रहा है? या मैं बस चल रही हूँ, बिना नक्शे के? मगर अब उस संशय से डर नहीं लगता। इनसे अब अपनापन लगता है।

कभी-कभी लगता है – जो मैं आज हूँ, वही शायद मुझे बीस की उम्र में होना था। मगर तब जो थी, वही मुझे यहाँ तक लाया है।

तो शायद सब कुछ ठीक ही हुआ।

अब, जब तीसरे दशक की शुरुआत हो रही है – तो कुछ नियम मन में उग आए हैं। किसी किताब से नहीं, किसी प्रवचन से नहीं। बस अपनी भूली-बिसरी यात्राओं से:

• ज़िंदगी को समझने की कोशिश में ज़िंदगी बीत जाती है
• सभी जवाब वक़्त के साथ फीके हो जाते हैं
• गलतियाँ तब तक दुहराई जाती हैं, जब तक वो समझ में नहीं आ जातीं
• भटकाव, असल में, रास्तों की ही एक शक्ल है
• परिपक्व होना – मतलब ये नहीं कि सवालों से मुक्ति मिल जाए… बल्कि ये कि अब हम उनके साथ जीना सीख गए हैं
अब कोई जल्दी नहीं है। कोई दौड़ नहीं। जीवन अब भी वैसा ही रहस्यमयी है – बस अब उस रहस्य को समझने की ज़िद थोड़ी कम हो गई है।
शायद यही उम्रदराज़ होना है।
अब, इस तीसवें जन्मदिन पर, मैं जीवन को वैसे ही स्वीकार करती हूँ – जैसे वह मेरे पास आया है। अपनी अधूरी इच्छाओं के साथ, अधूरे ख्वाबों के साथ, कुछ खोई हुई रातों के साथ… और उन सभी सुबहों के साथ, जिनमें अब भी रौशनी की उम्मीद बाकी है।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

0FansLike
0FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles