फेसबुक ने पूछा आप क्या सोच रहे है तो मेरा जबाब है, कि जैसे प्रसाद की खीर में कोई छिपकली गिर जाए और श्रद्धा घृणा में बदल जाए, ठीक वैसा ही कुछ महसूस हो रहा है इन दिनों। समाचारों में एक के बाद एक ऐसी घटनाएँ सामने आ रही हैं, जिनसे मन में केवल ग्लानि और असहायता बचती है। सोनम का मामला कोई साधारण खबर नहीं, बल्कि इस युग की उस पीड़ा का प्रतीक बन गया है जहाँ इंसानियत, रिश्ते, और भरोसे की लाशें रोज़ उठ रही हैं।
एक पल को लगा कि तुंगनाथ जैसे शिखरों से लौटकर आना मानो नर्क वापिसी है। जब स्त्रियां इतनी नीचता में डूबी हो कि किसी अन्य उच्चता की अनुभूति भी अपराध जैसी लगे, तब मन प्रश्न करता है – क्या यह वही समाज है जहाँ ‘नारी’ को देवी माना जाता था?
मोक्ष में पछतावा नहीं होता, पर यहाँ तो हर मोड़ पर पछतावा है – सोनम के लिए, उन कोमल बेटियों के लिए जिन्हें जन्म हीं लेने से पहले एक साज़िश में ढाल दिया गया, और उनके लिए भी जो स्त्रियों के नाम पर राक्षसी प्रवृत्ति को जीवन का लक्ष्य बना बैठी हैं। ये स्त्रियाँ नारीवाद नहीं, नारी का अपमान कर रही हैं। नारी का स्वरूप संतुलन, सहनशक्ति, समर्पण और मर्यादा में था – जिसमें शक्ति थी, लेकिन वह शक्ति विध्वंस के लिए नहीं, सृजन के लिए थी।
आज स्वतंत्रता के नाम पर जिस स्वेच्छाचार को सशक्तिकरण समझा जा रहा है, वह असल में स्वार्थ की सीमाहीन भूख है। न किसी को समझने की इच्छा, न संवाद की ललक, न किसी रिश्ते को निभाने की सहनशक्ति – सब कुछ अब ‘शॉर्टकट’ में समेटा जा रहा है: प्यार में शॉर्टकट, शादी में शॉर्टकट, और दुख में भी शॉर्टकट – आत्महत्या या हत्या।
कोई भी रिश्तों से ऊपर नहीं है, लेकिन कोई किसी की जान लेने का अधिकारी भी नहीं है। अगर रिश्ता नहीं निभाना तो साफ मना कर दो। विवाह, साथ चलने का व्रत है, न कि किसी को बंदी बनाकर यातना देने का माध्यम। ऐसे मामलों को देर नहीं होनी चाहिए – या तो फास्ट ट्रैक कोर्ट, या फिर तुरंत न्याय जैसी सख्ती।
सच यह है कि आज के युवाओं में आकर्षण नहीं, केवल आकर्षण की नक़ल है। भावनाएँ नहीं, सिर्फ़ आक्रोश है। इतिहास जानने की भूख नहीं, सिर्फ़ पल में सब कुछ पा लेने की हड़बड़ी है। खान-पान, दिनचर्या, भाषा, व्यवहार – हर क्षेत्र में एक असंतुलन फैला है जिसने इंसान को केवल उपभोक्ता बना डाला है।
और शायद हम, जो पिछली पीढ़ी के आखिरी साक्षी हैं, इस संक्रमण को देखकर दुखी तो होते हैं, लेकिन शुक्रगुज़ार भी हैं कि हमें यह विवेक मिला कि हम भूत और भविष्य के इस अंतर को समझ सकें। पर जो बच्चे इस ज़हर को दूध समझ कर पी रहे हैं, उनकी संतानों को इसका असर झेलना पड़ेगा।
आज का मौसम उदास नहीं, यह सचमुच मातम में है। और हम सबको रुक कर सोचने की ज़रूरत है – क्योंकि यदि हम आज नहीं चेतेंगे, तो कल केवल पछताने को बचेगा।
कुछ रिश्ते मर जाते हैं, पर उनकी लाशें समाज में सड़ती रहती हैं — और बदबू हम सबको महसूस होती है।
अगर आज हमने रिश्तों की मर्यादा नहीं बचाई, तो कल संतानों के संस्कारों की चिता भी हम ही को जलानी होगी।