Menka Tripathi की कलम के साथ चलिये सैंडविच को लेकर एक संक्षिप्त शब्दों और स्वाद की दिलचस्प यात्रा में..
सैंडविच एक ऐसा शब्द, जो भारतीय संस्कृति और खानपान का मूल हिस्सा नहीं था, लेकिन समय के साथ हमारी रसोई में जगह बना चुका है। जिस तरह चाय भारतीय जीवनशैली का अभिन्न अंग बन गई, उसी तरह डबल रोटी भी, जो पुर्तगालियों के साथ भारत आई, धीरे-धीरे हमारी भोजन परंपरा में समाहित हो गई।
शब्दों के गलियारों में घूमते हुए सैंडविच की कथा रोचक रही है। संस्कृत में “रोटिका” शब्द हमारे भोजन-संस्कृति का हिस्सा रहा है, लेकिन खमीर वाली रोटी को लंबे समय तक संरक्षित रखना और उसे श्रम व समय की बचत के लिए उपयुक्त बनाना, पश्चिमी खानपान की देन रही।
भारतीय भोजन शैली में भरवाँ व्यंजन सदियों से प्रचलित रहे हैं—गुजिया, भरवाँ पराठा, समोसा और चंद्रकला इसके उदाहरण हैं।मुझे बचपन से नर्म रोटी के बीच देशी घी नमक मिर्च की पीपी बनाकर खाना पसन्द रहा है लेकिन आज बच्चे वह स्वाद अनुभव नहीं जानते इसीलिए वह नहीं मानते पर सैंडविच की अपनी एक अलग ही मजेदार कहानी है।
सैंडविच नाम कैसे पड़ा?
सत्रहवीं शताब्दी के अंत में, फ्रांसीसी लेखक पियरे-जीन ग्रोसली ने अपनी पुस्तक A Tour to London में लिखा कि एक ब्रिटिश मंत्री ने चौबीस घंटे तक सार्वजनिक जुए की टेबल पर बिताए। खेल में इतना मग्न होने के कारण उसने खाने के लिए केवल टोस्टेड ब्रेड के दो स्लाइस के बीच रखा मांस खाया, ताकि खेल में खलल न पड़े। लंदन में इस नई प्रकार की डिश को पसंद किया जाने लगा, और यह मंत्री के नाम पर “सैंडविच” कहलाने लगी।
हालांकि, प्रसिद्ध कथाकार सूरज प्रकाश जी से बातचीत के दौरान एक अन्य रोचक दृष्टिकोण सामने आया। उनके अनुसार, सैंडविच इंग्लैंड में एक स्थान था । वहां का राजा जुए का शौकीन था! अक्सर उसके घर महफिलें लगती! उसने एक दिन खानसामा को कहा कि सबके लिए इस तरह का व्यंजन बनाओ ताकि सब खेलते खेलते और खाते-खाते खेल सके ।
राजा ने अपनी सृजनात्मक शक्ति से उपलब्ध सामग्री को डबलरोटी मे लगाया और जितना स्वादिष्ट बना पाया ले आया! सभी को वह व्यंजन और तरीका इतना पसन्द आया कि उसी के देखा देखी बाकी लोगों ने भी अपने-अपने राज्य में इसी तरह की डिश बनवानी शुरू कर दी! धीरे धीरे अर्थ संकोच या समासिक रूप में यही व्यंजन “सैंडविच” नाम से प्रसिद्ध हो गया।
भाषा का स्वाद और अर्थ संकोच
भाषा विज्ञान हमें सिखाता है कि शब्दों की यात्रा केवल ध्वनि परिवर्तन या संकोच से नहीं होती, बल्कि उनके साथ भावनाएँ, संस्कृति और परंपराएँ भी चलती हैं। कई बार हम बिना गहराई में जाए शब्दों को आत्मसात कर लेते हैं, बिना यह जाने कि वे कहाँ से आए, कैसे बने, और उनका मूल अर्थ क्या था।
तो अगली बार जब आप सैंडविच बनाते या खाते हुए सोचें, तो ज़रा ठहरकर इस स्वादिष्ट शब्द की ऐतिहासिक यात्रा को भी महसूस करें। आखिर, भाषा केवल शब्दों की श्रृंखला ही नहीं, बल्कि एक जीवंत परंपरा है, जो समय के साथ हमारी संस्कृति का हिस्सा बनती रहती है।
बनाइए, खाइए, और शब्दों के जायके का आनंद लीजिए!
(मेनका त्रिपाठी)
(इस विश्व के प्रथम मात्र-महिला मंच OnlyyWomen पर धरा की प्रत्येक महिला लेखिका व पाठिका का ससम्मान स्वागत है !!)