Menka Tripathi writes: आज भी जब कोई बच्चा कुल्फ़ी मांगता है, या कोई माँ कैंची से कपड़ा काटती है, या कोई कविता में हसीना की बात होती है, तब लगता है जैसे वह तुर्की कारवां अब यहीं का होकर रह गया है..
जब हम हिंदी बोलते हैं, तो हमें अक्सर यह ज्ञात नहीं होता कि हमारी ज़बान में कई ऐसे शब्द शामिल हैं जो तुर्की मूल से आए हैं और अब इतने घुल-मिल गए हैं कि वे हमारी पहचान का हिस्सा बन चुके हैं। यह भाषाई मेलजोल कोई संयोग नहीं, बल्कि भारत के ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संपर्कों की जीवित स्मृति है। विशेषकर मध्यकालीन भारत में, जब तुर्क शासकों का आगमन हुआ, वे अपने साथ केवल तलवार और तख़्त नहीं लाए, बल्कि एक पूरी जीवनशैली, संस्कृति और भाषा भी लेकर आए।
तुर्कों ने प्रशासनिक व्यवस्था के साथ-साथ ऐसे शब्द दिए जो शासन, न्याय और समाज के विभिन्न स्तरों को अभिव्यक्त करते थे। ‘सिपाही’, ‘दरबान’, ‘ख़ान’, ‘मीर’ और ‘बाशिंदा’ जैसे शब्द आज भी हमारी बोली में सुशोभित हैं। ये केवल शब्द नहीं, बल्कि उस समय के सामाजिक ढांचे की झलक हैं, जहाँ अनुशासन, आदेश और संरचना के लिए नई भाषिक परंपराएँ अपनाई गईं।
वस्त्र और श्रृंगार की दुनिया भी तुर्की प्रभाव से अछूती नहीं रही। ‘कुर्ता’, ‘टोपी’, ‘दुपट्टा’ और ‘कफ़न’ जैसे शब्दों ने भारतीय परिधान को नए नाम दिए। इन शब्दों में केवल पोशाक नहीं, बल्कि उस संस्कृति का स्पर्श भी था जो नए रंग और ढंग लेकर आई थी।
युद्ध और सुरक्षा के क्षेत्र में भी तुर्की शब्दों की छाप स्पष्ट दिखती है। जब तोप और बंदूक भारत की ज़मीन पर गूँजीं, उनके नाम भी तुर्की से ही आए। चाकू और कैंची जैसे औज़ार न केवल उपयोगी बने, बल्कि भाषा में भी स्थायी स्थान पा गए। विशेष रूप से कैंची के बारे में सोचें — कपड़े काटने का यह औज़ार, जो कभी विलासिता की वस्तु था, आज हर घर की ज़रूरत है। कल्पना कीजिए, इससे पहले लोग धागा निकालकर या हाथ से कपड़ा फाड़ते होंगे! यह तकनीक और भाषा के विकास की एक अद्भुत मिसाल है।
खानपान का क्षेत्र तो और भी रंगीन रहा। ‘कबाब’, ‘शरबत’, ‘कोफ़्ता’ और ‘कुल्फ़ी’ जैसे शब्द स्वाद के साथ-साथ अपनी तुर्की जड़ों को भी समेटे हुए हैं। इन शब्दों में न केवल ज़ायका है, बल्कि इतिहास की वह खुशबू भी है जो शाही बावर्चियों की रसोई से होती हुई आम जनता की थाली तक पहुँची।
सामाजिक जीवन और भावनाओं को व्यक्त करने वाले कई शब्द भी तुर्की भाषा से आए हैं। ‘बाज़ार’ अब सिर्फ व्यापार की जगह नहीं, एक संस्कृति बन चुका है। ‘बाग़’ शब्द में फूलों की महक और शांति की कल्पना छिपी है। वहीं ‘बेख़ौफ़’, ‘बदनसीब’, ‘हसीना’ और ‘जालिम’ जैसे शब्द मानवीय भावनाओं की गहराई और रंगीनियों को एक नई भाषा में ढालते हैं।
तुर्की शब्दों की यह विरासत हमारे शब्दकोश में नहीं, हमारी आत्मा में रची-बसी है। ये शब्द न केवल अर्थ बताते हैं, बल्कि एक इतिहास, एक यात्रा, और एक मिलन की कहानी कहते हैं — भारत और तुर्की के बीच संवाद की, संस्कृतियों के संगम की, और भाषा की वह शक्ति जो सीमाओं को पार कर जाती है।
शब्द कोई भी हो, अगर दिल से निकले, तो अपना हो जाता है। तुर्की से आए ये शब्द पहले आक्रामकता के साथ आए, लेकिन धीरे-धीरे हिंदी की गली-कूचों में रम गए। कोई दुपट्टे की तरह कंधे पर लहराया, कोई बंदूक की तरह साहस बना, कोई शरबत-सा मीठा हो गया। वे अब नए नहीं हैं — वे हिंदी के ही हिस्से बन चुके हैं।
आज भी जब कोई बच्चा कुल्फ़ी मांगता है, या कोई माँ कैंची से कपड़ा काटती है, या कोई कविता में हसीना की बात होती है, तब लगता है जैसे वह तुर्की कारवां अब यहीं का होकर रह गया है।