आज लेखक गांव हिमालय स्पर्श महोत्सव साहित्य कला और संस्कृति का तीसरा और अंतिम दिन था। हवा में किताबों की खुशबू थी, मन में लोकार्पण का उत्साह और आसपास एक उत्सव-सा माहौल। नाश्ते की टेबल पर बैठे थे — . मधु खन्ना प्रोफेसर जावेद, विष्णु सर्वदे सर, चार्ली थॉमसन, अतिला जी और मैं। चारों ओर साहित्य, संस्कृति और संवाद की मिठास घुली हुई थी।
कुर्ते-पजामे में सजे, चुलबुले प्रोफेसर चार्ल्स एस थॉमसन आज सबके आकर्षण का केंद्र थे। विशुद्ध हिंदी में इतने सहज ढंग से बोल रहे थे कि उनके होंठों से एक भी अंग्रेज़ी शब्द नहीं फिसल रहा था। अचानक उन्होंने मुस्कुराकर कहा —
“आप सब नाश्ते के दौरान कोई भी शब्द अंग्रेज़ी का मत बोलिए, मैं इसका सख्त विरोधी हूँ!”
सभागार में ठहाका गूंज उठा। जो चार्ल्स जी उर्फ़ बिहारी लाल जी कल तक “कॉफी” को “कॉपी” कहते थे, आज हिंदी के प्रहरी बन बहुत प्यारी डांट लगा रहे थे!
इतने में प्लेट में प्रवेश किया — सुनहरा, गोल-मटोल, फूला हुआ भटूरा!चार्ल्स जी ने उसे देखकर गंभीर स्वर में कहा — “यह व्यंजन नहीं, भारत की आत्मा है।”
प्रोफेसर जावेद ने तुरंत मुस्कुराते हुए जवाब दिया —
“भटूरा हो या विचार, जब तक फूलकर न खिले — न पचते हैं, न असर करते हैं।”तजिकिस्तान के हिंदी विद्वान की हिंदी में कही गहरी बात आश्चर्य और हँसी मिश्रित भरी मुस्कान से सजी थी!
पूरा हॉल ठहाकों से गूंज उठा।प्रिय मधु खन्ना जी ने अपनी कोमल मुस्कान के साथतुरंत एक प्यारी कविता पढ़ी —“शब्द अगर भटूरे हों, तो अर्थ हैँ छोले, दोनों मिल जाएं तो स्वाद बनता है,
और यहीं से जन्म लेती है साहित्य की रसोई।”
कविता ने माहौल में स्वाद और सरसता दोनों घोल दिए।
अतिला जी श्री लंका भी मुस्कुराते हुए कहा —“ज़िंदगी भी भटूरे जैसी होनी चाहिए —थोड़ी गर्म, थोड़ी गोल,पर फूलने की क्षमता हमेशा रखनी चाहिए।”चार्ली जी बोले — “वाह वाह! मेनका जी हिंदी का स्वादिष्ट दर्शन!”
विष्णु सर्वदें सर ने अपनी गंभीर परंतु स्नेहिल आवाज़ में कहा —हर रचना तब पूरी होती है, जब लेखक उसमें अपने अहंकार का तेल अधिक न रख दे,जैसे तेल में तलकर भटूरा फूल जाता है और नुक्सान भी करता हैँ।”
क्षणभर के लिए पूरा सभागार मौन हो गया — और फिर तालियों से गूंज उठा। चाय के छह कप हमारे सामने रखे थे और पाँच देश एक ही टेबल पर मुस्कुरा रहे थे।
मैंने हँसते हुए कहा —“जब छह कप और पाँच देश होंगे, तो हम सब मिलकर ग्यारह हो गए —अब एक और एक ग्यारह नहीं, छह और पाँच ग्यारह!”
सब खिलखिला पड़े — यह हास्य, यह आत्मीयता लेखक गांव के माहौल की पहचान बन गया।
इतना प्यार, अपनापन और साहित्यिक स्नेह देखकर उड़ीसा के पूर्व कुल सचिव जयंत कर शर्मा जी, कुलसाचिव उड़ीसा ने हमारा इतना सुन्दर चित्र स्मृति रूप कैद किया और मुस्कुराकर कहा,“यह तो सच्चा ठाकुर भोज है, मेनका — जहाँ भटूरे में दर्शन और मित्रता दोनों परोसे जा रहे हैं!”और वह भी ठाकुर में शामिल हो गए।
उस दिन लेखक गांव में न केवल मेरी पुस्तक का लोकार्पण हुआ,बल्कि हँसी, स्वाद, कविता और दर्शन — चारों का संगम हुआ और मैंने मन ही मन कहा —“साहित्य वहीं जीवित रहता है, जहाँ शब्द मुस्कराते खिलते हैं और भटूरे से भाव फूलते हैं।”