Menka Tripathi के धारावाहिक ‘मेरी यात्राएं’ का यह अंश ‘चंद्रशिला’ उत्तराखंड के एक सुरम्य स्थान की संकल्प-कथा कहता है..
कनखल का जमाई था चंद्र — सुंदर, कमनीय, स्वस्थ — शिव के सिर चढ़ा। उसी चंद्र पर दक्ष ने अपनी 24 पुत्रियाँ ब्याही थीं, पर चंद्र रोहिणी पर आसक्त था। बाकी सबकी उपेक्षा भारी पड़ी — और नतीजा, श्राप मिला। चंद्र का रूप, बल, कला — सब क्षीण हो गया। कहते हैं, फिर वह चंद्रशिला पर बैठा — तपस्या की, शायद योग किया होगा, मन को साधा होगा, क्षमा माँगी होगी।
मैं चढ़ी थी चंद्रशिला की चोटी पर, जिसकी ऊँचाई 3,690 मीटर है — केदारनाथ से भी ऊपर। वहाँ से नज़रें उठाईं तो विश्व की सबसे ऊँची चोटी, माउंट एवरेस्ट, जिसकी ऊँचाई 8,848 मीटर है, दूर आकाश में सजीव लगी। त्रिशूल, चौखम्बा और नंदा देवी जैसे देवशिखर सामने थे, मानो स्वागत कर रहे हों। उस ऊँचाई पर पहुँचना मेरे लिए केवल एक ट्रेक नहीं था, बल्कि आत्मा का विस्तार था। हवा, मौन, और विशालता ने मुझे भीतर तक हिला दिया। एक स्त्री होकर, अपने साहस, संकल्प और जिजीविषा से जब प्रकृति की गोद में बैठी, तो लगा यही मेरी सच्ची तपस्या थी।
मैं जब उस शिला तक पहुँची — हाय! कितनी ऊँची है ये! बार-बार उसे छू-छू कर देखती रही। सोचती रही — चंद्र ने क्या इसी पर बैठ कर वह तप किया होगा? और मैं? मैं इस ऊँचाई तक पहुँची कैसे?
डॉ. प्रिया, सुरभि, तान्या, शैकी — सब मुझसे पहले ऊपर पहुँच चुकी थीं। मैं सबसे पीछे थी, पर भीतर से ठान चुकी थी कि अगर शुरू किया है, तो पूरा करूँगी। कई बार लगा, जैसे मैं कोई चींटी हूँ, जो आकाश छूने चल दी है। लेकिन मुझमें जो हठ है — वह दक्ष के कांखल से है। उस वंश की हूँ, जहाँ सम्मान, श्राप और तप एक ही जीवन में उतरते हैं।
धीरे-धीरे, एक-एक साँस, एक-एक कदम — और सपना पूरा हुआ। जैसे अंधेरे के बाद आकाश खिलता है — वैसे ही भीतर भी कुछ खुल गया। शिखर पर पहुँची, तो प्रकृति की गोद में बैठने का सौभाग्य मिला — और वो भी पर्यावरण दिवस पर। लगा जैसे यह कोई संयोग नहीं, तपस्या का ही फल है।
उस ऊँचाई पर बैठकर जब हवा ने मेरे बालों को छुआ, और मुस्कान अपने आप खिल उठी — तब समझ आया कि यह कोई साधारण ट्रेक नहीं था। यह मेरी आत्मा का चढ़ाव था — मेरे भीतर की किसी रूकी हुई नदी का फिर से बह चलना।
चंद्रशिला — एक पत्थर नहीं, एक कथा है। और उस दिन, उसमें मेरी कथा भी जुड़ गई।
(मेनका त्रिपाठी)