Menaka Tripathi की सार्थक लेखनी न केवल धर्म में आपकी आस्था को दृढ़ करती है अपितु धर्म और विज्ञान के संगम का सेतु भी बनती है..
भारतीय संस्कृति में परंपराएँ केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि जीवन को संतुलित और स्वस्थ रखने के वैज्ञानिक तरीके भी हैं। इन्हीं में से एक है चैत मास में चर्म रोगों से बचाव और देवी-देवताओं की पूजा। खासतौर पर शीतला माता, सूर्य देव और बुढ़े बाबू की आराधना, जो संक्रमण और त्वचा संबंधी रोगों से बचाव से जुड़ी हुई है।
चर्म रोग और उनसे जुड़े देवी-देवता
शीतला माता: चेचक, फोड़े-फुंसी और त्वचा संक्रमण से रक्षा
उनका तो नाम ही शीतला माता है , शीतलता प्रदान करने वाली। भारतीय परंपरा में यह मान्यता है कि शीतला माता शरीर में गर्मी से होने वाले रोगों—जैसे चेचक, फोड़े-फुंसी और त्वचा संक्रमण—से रक्षा करती हैं। चैत मास में शीतला माता की पूजा और बासी भोजन ग्रहण करने का रिवाज वैज्ञानिक दृष्टि से भी सही है।
बासी भोजन पित्त दोष को शांत करता है और नीम जैसी औषधीय चीजों का उपयोग संक्रमण से बचाव में सहायक होता है।हम होली के बाद सोमवार, बृहस्पति वार या रविवार का दिन चुनते हैं! एक दिन पहले रात को कढ़ी चावल, पूरी, पुए इत्यादि बना कर रख दिए जाते हैं सुबह सुबह बासी मुख, बिन स्नान और बिन झाडू लगाएं इसे पूजने की परम्परा मेरे कौतूहल का विषय रही है!
सूर्य देव: त्वचा रोगों को दूर करने वाले आरोग्य देवता
सूर्य देव की पूजा विशेष रूप से चर्म रोगों से बचाव के लिए की जाती है। प्राचीन शास्त्रों में सूर्य को आरोग्य और आयुर्वेद का स्रोत माना गया है। उनकी पूजा से शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण
प्रातःकालीन सूर्य किरणें विटामिन D का निर्माण करती हैं, जो त्वचा को स्वस्थ बनाए रखती है।तांबे के लोटे में रखा जल सूर्य को अर्पित करने के बाद ग्रहण करने से शरीर में शुद्धता बनी रहती है।मंत्रों के जाप से मानसिक शांति मिलती है, जिससे तनावजनित चर्म रोगों में कमी आती है।
बूढ़े बाबू: स्थानीय देवता और संक्रामक रोगों से रक्षा
चैत मास में खास तौर पर स्थानीय पर्व के रूप में बूढे बाबू की दूज इसलिए याद है क्योंकि इस दिन दादी नानी माँ एक खास तरह से पुए बनाती थी जो चीनी से पगे होते थे! मुझे बार बार बताया गया कि जो इसे नहीं मनाते तो फुंसी फोड़े हो जाते हैं!
ग्रामीण भारत में बुढ़े बाबू जैसे स्थानीय देवताओं की पूजा चर्म रोग और संक्रामक रोगों से बचाव के लिए की जाती है। गाँवों में मान्यता है कि बुढ़े बाबू की पूजा करने से महामारी और त्वचा संबंधी रोग दूर रहते हैं।कल एक ग्रामीण स्त्री ने विचित्र बात ये बताई कि मक्खी का पानी चर्म रोग पर लगाते हैं जो पूजा करने के बाद हम घर लाते हैं!
मैंने स्वयं कोरोंना काल में देखा था कि जो अधिक सफाई नहीं रखते थे वह रोग प्रतिरोधक क्षमता सफाई पसन्द लोगों से अधिक रख सके थे!
लोक परंपराएँ और वैज्ञानिक कारण
सदियों से चली आ रही इन परम्पराओं को कभी भी कुतर्क, तर्क से तोला न गया पर आज का युवा वर्ग करने के स्थान पर कहना अधिक चाहता और समझना भी नहीं चाहता परिणाम देख लीजिये भयानक असंतुलन की स्थिति चारो तरफ हमे दिखती है!
गाँवो में विशेष रूप से स्थानीय स्थानों पर खेड़ा, लोक देव स्थलों पर मिट्टी के दीप जलाए जाते हैं, जिससे वातावरण शुद्ध होता है।नीम और तुलसी के पत्तों का प्रसाद चर्म रोगों में लाभकारी होता है।रोगी व्यक्ति को देवता के स्थान पर ले जाकर उपचार किया जाता है, जिससे समुदाय के लोग उसकी देखभाल में सहयोग करते हैं।
परंपराओं को विरासत में सौंपें, लेकिन कुतर्कों में न फंसे
आज की पीढ़ी अति की सुख-सुविधा में दुविधा बन गई है। जब हम अपनी परंपराओं को विरासत में सौंपते हैं, तो यह ज़रूरी है कि हम अंधविश्वास और विज्ञान का अंतर समझें, लेकिन साथ ही कुतर्कों में न फंसे। परंपराएँ सिर्फ़ इसलिए नहीं कि वे पुरानी हैं, बल्कि इसलिए कि उनमें गहरी समझ है। हमें इन्हें और अधिक जागरूकता के साथ अगली पीढ़ी को देना होगा।
स्त्रियों को स्त्रियों की तरह रहने दो, क्योंकि वे परंपरा की धुरी हैं
परंपरा का असली भार स्त्रियाँ ही उठाती हैं। लेकिन आज जब उन पर अत्यधिक दबाव डाला जा रहा है—चाहे समाज का हो या आधुनिकता की अंधी दौड़ का—तो परिणामस्वरूप विस्फोट हो रहा है। स्त्री अपनी धुरी से हटकर किसी और रूप में ढाली जा रही है, जिससे असंतुलन बढ़ रहा है। स्त्रियाँ ही परंपराओं की वाहक हैं, उन्हें अपनी स्वाभाविक भूमिका में रहने दो, न कि किसी कृत्रिम बोझ तले दबाओ।
हमारी परंपराएँ केवल पूजा-पाठ नहीं, बल्कि जीवन को व्यवस्थित और संतुलित रखने की विधियाँ हैं। जब हम इन्हें अगली पीढ़ी को सौंपते हैं, तो यह समझना ज़रूरी है कि सिर्फ़ विरोध के लिए विरोध न किया जाए, बल्कि परंपराओं की गहराई को समझकर उन्हें वैज्ञानिक और व्यावहारिक रूप में अपनाया जाए। तभी हम संक्रमण से भी बचेंगे, समाज की विसंगतियों से भी, और स्त्रियों को उनकी स्वाभाविक भूमिका में भी बनाए रखेंगे।
(मेनका त्रिपाठी)
(इस विश्व के प्रथम मात्र-महिला मंच OnlyyWomen पर धरा की प्रत्येक महिला लेखिका व पाठिका का ससम्मान स्वागत है !!)