“शब्दों की भी आत्मा होती है।” वे आत्माएँ जब तक व्यक्त नहीं हो पातीं, भीतर ही भटकती रहती हैं — जैसे कोई पुरखों की अधूरी बात, जो पीढ़ियों से मुखर होने को आतुर हो। मैं वर्षों से फेसबुक पर लिख रही हूँ। मेरे कई मित्र और सखियाँ मुझसे यह कहते हैं — “तुम्हारे पास तो शब्दों का खज़ाना है!”
हाँ, मैं समृद्ध हूँ। और आज, इस समृद्धि का एक रहस्य आपके सामने खोलना चाहती हूँ। मेरी नानी और माँ के बीच उम्र का गहरा अंतर था — माँ, नानी की सबसे छोटी संतान थीं। मेरी नानी मुगलकाल से प्रभावित एक ऐसे युग में जन्मी थीं, जहाँ शब्दों की संस्कृति आज की तुलना में अधिक जीवंत और बहुआयामी थी।
वे अपनी माँ की शब्द-धरोहर लेकर जीती थीं — वे शब्द जो सीधे मन को छूते थे। माँ और मुझमें भी पीढ़ियों जितना अंतर रहा। मैं माँ की बहुत बाद में जन्मी संतान हूँ। इसलिए मेरे भीतर — नानी की नानी तक की बोली-बानी, कहावतें, संबोधन और व्यंजक शब्द — सब कुछ उतर आया।
एक बच्चा बहुत संवेदनशील होता है। वह सुनता है, संग्रह करता है, भले ही तत्काल प्रयोग न कर पाए। मुझे लगता है — मेरे दिमाग़ में बचपन से ही भाषा की खोज और शब्दों की पहचान का एक मूक प्रयोगशाला चलती रही। — शब्दों की लय: गीत और छवियाँ हमारे मस्तिष्क में गाने अनायास चलते रहते हैं — “छैल छबीला छैला बाबू”, “तू कैसा दिलदार निकला”, “छम्मक छल्लो”…
कभी अर्थपूर्ण, कभी केवल लयबद्ध। इन गीतों से अलग, जब मैं कवियत्री सुभद्राकुमारी चौहान की वह पंक्ति पढ़ती हूँ: “कानपुर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी…” तो अचानक ‘छबीली’ शब्द का सौंदर्य मेरी आत्मा को छू जाता है। यहाँ ‘छबीली’ केवल सुंदरता का पर्याय नहीं, बल्कि सजीवता, संवेदना, और संघर्षशील नारीत्व की छवि है।
‘छवि’ की खोज: शब्द की जड़ों में आजकल राजनीति में हम अक्सर सुनते हैं — “राजनीतिक छवि”, “छवि निर्माण”, “छवि प्रबंधन”। मानो अब ‘छवि’ केवल रूप या आभा नहीं, बल्कि एक सजाई-संवारी हुई सामाजिक धारणा बन गई है। लेकिन क्या कभी सोचा है कि यह ‘छवि’ शब्द आया कहाँ से? संस्कृत धातु ‘छो’ से — जिसका अर्थ है अंश, खंड।
इसी ‘छो’ से बने शब्द हैं — छाया, छवि, प्रतिबिंब, अक्स — अर्थात् किसी मूल वस्तु की झलक, उसकी छाया। ‘छवि’ का अर्थ केवल रूप नहीं — बल्कि उस रूप की आभा, उसकी स्मृति, जो पूर्ण नहीं होते हुए भी पहचान योग्य है। छैल, छबीली, और लोक की भाषा ‘छवि’ जब प्राकृत में पहुँची, तो बनी छइल्ल। लोक में उसका रंग चढ़ा, और वह बन गई छइल्लो — फिर छैला।
इसी तरह छबि से बने छबीला और छबीली — अर्थात् वह जो छवि से भरा हो — आकर्षक, मोहक, मनभावन। लोकगीतों, कहावतों और गानों में यह शब्द किसी यथार्थ सौंदर्य का नहीं, बल्कि अंतरजगत की छवि का प्रतिनिधित्व करता है। — छमकछल्लो: उपहास या उपमा?
अब आइए, बात करें छमकछल्लो की। कुछ लोगों को यह चुटीला लगता है, कुछ को अपमानजनक। पर यदि इसकी जड़ों में जाएँ, तो पाएँगे — यह शब्द बना है छबीली की छवि और घुँघरुओं की छम-छम से। ‘छम’ यानी लय, चाल; ‘छल्लो’ यानी वह जो लहराती हुई चले। तो छमकछल्लो का अर्थ हुआ — वह जो चलती है लयबद्ध, रंगीन, और ध्यान आकर्षित करती है।
इसका ‘छल’ या ‘छलना’ से कोई लेना-देना नहीं। यह तो बस छवि की छम-छम है — जीवन की रागात्मक अभिव्यक्ति। समय का रंग और शब्दों की दिशा समाज समय के साथ शब्दों की व्याख्या भी बदल देता है। ‘छबीली’ अब सिर्फ रूपवती नहीं, ‘छैला’ अब सिर्फ बाँका नहीं — ये शब्द अब मूल से कटकर केवल मूल्यांकन के पात्र बन गए हैं।
शब्दों की आत्मा जब लोकधारा में बहती है, तो कई बार वह मूल भावना से बहुत दूर निकल जाती है तो क्यों न हम — शब्दों की आत्मा को फिर से पहचानें,उनकी जड़ों तक लौटें और जानें कि हर छबीली केवल अदाओं की मिसाल नहीं, बल्कि एक इतिहास, एक संस्कृति, और एक युगबोध की संतान है!
(मेनका त्रिपाठी)