M For Memories: अर्चना आनंद भारती की सुरबहार कलम से खनकती हुई यह स्मृति-यात्रा का एक अंश पढ़िए ‘ओ गो बिदेशिनी’ में ..
वह साल 2015 था। संगीत का शौक यों तो बचपन से ही था लेकिन हारमोनियम की कुंजियों से परिचय नया ही था। दुर्गा पूजा का समय था और लंबे समय बाद मंचीय प्रस्तुति देनी थी। कुल मिलाकर कोई 200 – 250 श्रोता होंगे वहां।
आप कह सकते हैं कि यह एक घरेलू आयोजन था। हाथ – पांव कांप रहे थे और आवाज भी। आत्मविश्वास की कमी शायद मेरे व्यक्तित्व की सबसे बड़ी कमजोरी है जो ऐसे अवसरों पर मुझपर और हावी हो जाती है।
खैर, संगीत शिक्षक ने आश्वासन दिया और मैं मंच पर पहुंच गई। गीत था, असल में भजन था ‘श्रीरामचन्द्र कृपालु भजमन, हरण भव भय दारुणम्’ … मैंने कांपते, लगभग रूंधे गले से अपनी प्रस्तुति दी। हालांकि अंत में सबने तालियां बजाईं पर मुझे यह आश्वासन भर लग रहा था। मैं चुपचाप मंच से उतर आई। लेकिन तभी एक काकी मां आईं, बड़े स्नेह से मेरा माथा चूमकर कहा – “ओ मां, आमि तृप्तो होय गेछी, बहुत अच्छा गाया बेटा! आजकल संस्कृत भजन कौन गाता है?”
हम पंक्ति के अंत में खड़ी महिलाओं, जिनका देश की जीडीपी में कोई विशेष योगदान नहीं होता, के लिए हर बात बड़ी होती है। तो, इस प्रथम प्रशस्ति का, इस स्नेह का ही असर था कि फिर मैं हर वर्ष मंचीय प्रस्तुतियां देने लगी। संगीत की पारंपरिक शिक्षा भी चार वर्षों तक ली, लेकिन शायद किसी प्रेतबाधा के कारण मेरी यह कला भी अधूरी ही रह गई।
नौकरीपेशा लोग और उनका परिवार वैसे भी खानाबदोश ही होता है। सो शहर छूटा, गुरू छूटे और धीरे – धीरे संगीत भी! हम स्त्रियों का तो वैसे भी कुछ न कुछ छूटता ही रहता है। संभवतः इसलिए हमें किसी वैराग्य की, किसी महाभिनिष्क्रमण की आवश्यकता नहीं पड़ती।
तो, अब जबकि इस शहर में हमारा कोई जानने वाला नहीं, कभी – कभी अपने घर, अपने शहर की बड़ी याद आती है। यहां कोई कुशल – क्षेम नहीं पूछता। कोई नहीं टोकता,’भालो आछो?’ अब जबकि होली निकट है, फगुवे की थाप जो कि यहां नहीं सुनाई देती, मन के किसी कोने में आज भी दस्तक दे रही है। पूरब से आने वाली हवाओं में कोई निष्णात गायक मानो उलाहना दे रहा है, ‘तुमि थाको शिंधु पारे, ओ गो बिदेशिनी’…आह!