Love Storiyaan -9 : यह कहानी दो दिलों के बीच बहती हुई उस मुलायम-सी बातचीत की तरह है, जिसमें शब्द कम और एहसास ज़्यादा होते हैं -जहाँ हर वाक्य धीरे-धीरे प्रेम का रूप ले लेता है..
शीला को ऑनलाइन देखना अच्छा लगता है शोम को..उसने नमस्कार कहा।
सामने से उत्तर आया -राम-राम।
बस, इतना-सा अभिवादन, लेकिन मन के भीतर कुछ अच्छा-सा जाग उठा।
उसे लगा, सामने वाले को देखकर अच्छा लगा है… शायद इसलिए कि किसी ने कभी उसका बुरा नहीं किया।
उधर से शीला का हँसता हुआ चेहरा नजर आया -“बुरा नहीं किया, इसलिए अच्छा लगता है।”
और फिर शरारत से जोड़ दिया -“वरना तो… राम जाने।”
वह मुस्करा उठा।
बोला—“अरे बाबा, मैं तो अजातशत्रु हूँ। मेरा कोई दुश्मन नहीं।
लेकिन तुम… तुम तो मेरी मित्र हो।
और मित्र से भी कहीं बहुत ज़्यादा।
मेरे जीवन में न अब तक कोई हुआ है, न आगे कोई तुम्हारे जैसा होगा।”
शीला ने पूरे भरोसे से कहा- “मुझे विश्वास है।”
वह बोला -“मैं जानता हूँ।”
फिर उसने धीमे-से कहा –
“आज कुछ लिखा है मैंने…”
शीला ने उत्सुकता से पूछा -“क्या?”
और फिर शोम ने अपने मन की गहराइयों से निकले शब्द उसे सौंप दिए –
शब्दों के हारने की बात,
भावों की जीत की बात,
हृदय में बने उन चित्रों की,
जिन्हें कोई रेखा बाँध नहीं सकती।
शोम ने कहा कि प्रेम को शब्दों की ज़रूरत नहीं होती,
लेकिन फिर भी…
और कैसे अपने हृदय को वह उसको दिखाए?
उसने बताया कि उसे उसे सोचना अच्छा लगता है,
तुम्हारी कल्पना करना,
जैसे कोई अपने आराध्य को हर क्षण स्मरण करता है।
उसने कहा –
प्रेम उपलब्धि भी है, वरदान भी,
और इस विषैले संसार में जीवन की सुधा भी
और जीवन भी।
वह सुनती रही।
फिर बस इतना बोली -“बहुत ही सुंदर।”
शोम ने हल्के-से धन्यवाद कहा।
फिर शीला ने एक पंक्ति लिखी –
“अजब कालाधन है ये अपनी मुहब्बत…
न दिखाते बने है न छुपाते बने है!”
हँसते हुए उसने पूछा -“ये भी आपने ही लिखा न?”
फिर शरारत से जोड़ दिया -“ये अच्छा नहीं है।”
शोम हंस दिया – समझ गया नारी सुलभ ईर्ष्या है जिसके अंतर में प्रेम है
-“ये शायद दो-तीन साल पहले लिखा था..याद भी ठीक से नहीं।”
फिर धीरे से कहा –
“ये मेरे भीतर का वो कवि है,
जो मिलन की कविता भी लिखता है
और विरह की ग़ज़ल भी।
उसे किसी हालात की ज़रूरत नहीं होती…
वह अपने आप लिखता है।”
शीला ने कहा -“आपके भीतर बहुत कुछ है।”
वह बोला—“हाँ… और बाहर आने के लिए मचलता भी है।”
वह बोली -“आपकी दुनिया तो बिल्कुल अलग है।”
शोम मुस्कराया –
“और यक़ीन मानो, उस दुनिया को सिर्फ़ तुमने ही समझा है..मेरे लिये इतना ही काफ़ी है।”
शीला ने लिख कर मानो हल्के-से कहा –
“अगर मैं कभी आपके काम आ सकूं, तो मेरा सौभाग्य।”
वह बोला -“अगली बार मुझे पहले ही मिल जाना…
और इस बार कोई धोखा न हो।”
उसने सहजता से कहा –
“धरती पर आने से पहले आपने अपना साथी खुद चुना था। जो पहले आया वही साथ चला…”
फिर एक ठहराव देर तक खामोश रहा दोनो के बीच।
शीला ने कहा -“मजबूरी में मुझे फिर कुछ और देखना पड़ा।”
वह बोला -“मुझे अब प्रतीक्षा है अगले जन्म कि ताकि तुम मिल सको। लेकिन प्रसन्नता ये भी है कि अब तुम देर से ही सही और दूर से ही सही – मुझे मिल गई हो।”
शोम का लिखा शीला ने ऐसे पढ़ा जैसे वो धीमे धीमे बोल रहा हो –
“कभी-कभी आपसे बात करते हुए आँखों में आँसू आ जाते हैं।
लेकिन कोई बात नहीं…
जो विधि का विधान है, उसे स्वीकार करना ही पड़ता है।”
उसने तुरंत भावों को हल्का किया कहा –
“मैं ऐसी भी नहीं कि आपके आँसू आ जाएँ।”
वह बोला -“मुझे नहीं पता…शायद मेरे दिल को पता होगा।”
हँसी छूट गई शीला की जब उसने कहा –
“बंदर को पता होता है कि उसका दिल मीठा है!”
वह भी हँस पड़ा –
“और इस बंदर के दिल की मिठास का नाम… तुम हो।”
बातें खेल में बदल गईं—
मगर उस खेल में भी अपनापन था।
हँसी, शरारत, ठिठोली…
और उसके बीच बहती हुई प्रेम की गर्माहट।
ठंड का ज़िक्र आया।
वह बोला—“तू आ जा, रज़ाई बनकर।”
वह हँस दी—“मैं तो हमेशा तेरे साथ हूँ।”
वह बोला -“पर रज़ाई कब बनेगी?”
थोड़ा रुककर उसने कहा—“टाइम आउट।”
वह समझ गया, फिर भी बोला—
“मुझे कहने में राहत मिलती है…
अगर तुम्हें तकलीफ़ होती हो, तो सॉरी।”
वह झट से बोली -“नहीं बाबू, ऐसा नहीं है।”
फिर धीरे से सच रखा सामने शीला ने—
“मैं अब कोई रिस्क नहीं ले सकती…हालाँकि मौका था दो दिन तक कल..लेकिन हिम्मत नहीं हुई।”
शोम ने पूरी कोमलता से कहा –
“कोई बात नहीं।”
और फिर एक शेर कहा—
“मिल सकूं फिर एक बार तुझसे,
हादसे कहाँ रोज़ होते हैं…”
इसका जवाब शीला से आया जो एक दिल था—❤️
और फिर उसने लिखा -“ऑलवेज़..”
शीला ने फिर जैसे जिद्दी अन्दाज में कहा-
”तू जान ले शोम ..तेरी जगह कोई नहीं ले सकता।
मुझे बहुत याद आता है तेरा मुस्कुराना।”
वह बोला—
“मेरा चेहरा तेरा दर्पण है,
मेरी मुस्कान… तेरा चेहरा।”
वह बोली—
“बहुत प्यारी है वो मुस्कुराहट जो तेरे चेहरे पर खिल जाती है..”
– हाँ जब आप होती हैं सामने
कुछ देर तक कुछ भी न लिखा शोम ने लगता है वो खिड़की से बाहर आसमान को देख रहा था..
अंत में शीला ने कहा— लगता है बिज़ी हो गये..चलो काम कर लो अपना.. मैं भी चलती हूँ..
ध्यान रखना अपना।”
वह मुस्कराकर बोला—
“तुम्हारे लिए कभी व्यस्त नहीं होता…
काम तो चलता रहता है साँसों की तरह”
और जब वह बोली—“हम्म…”
तो वह हँसते हुए बोला—
“अगर मैं खुद को व्यस्त न रखूँ,
तो वादा करो…
याद नहीं आओगी!”
वह मुस्कराई।
और उसने शरारत से कहा—
“उफ्फ !‘’
-मत कहा करो ऐसा प्लीज…’’ शोम ने कहा –
‘‘कुछ-कुछ होने लगता है।”
लिखे हुए शब्द शोर नहीं मचाते..पर दिल की दीवाल पर चित्र बना देते हैं..और जिन्दगी उसमें रंग भर देती है..प्रेम कहानी मुस्कुराने लगती है।
(सुमन पारिजात)



