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Monday, December 15, 2025

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Dr Menka Tripathi writes: धागों में बसी संस्कृति – सामवेदी परंपरा और रक्षाबंधन का वैदिक स्वरूप

Dr Menka Tripathi के इस लेख में पढ़िये सनातनी पर्व रक्षाबंधन का मंतव्य जो बताता है कि रिश्ते धागों से नहीं, विश्वास और भावना से बंधते हैं..

भारत में पर्व केवल तिथियों के हिसाब से मनाए जाने वाले आयोजन नहीं, बल्कि जीवन की धारा में दिशा देने वाले संस्कार हैं। उत्तराखंड की सामवेदी ब्राह्मण परंपरा इसका एक अनूठा उदाहरण है, जहाँ भाद्रपद शुक्ल तृतीया, हस्त नक्षत्र के दिन हरतालिका तीज पर दो महत्वपूर्ण विधियां एक साथ होती हैं—यज्ञोपवीत धारण और रक्षाबंधन।

यह वह क्षण है जब अध्यात्म, संयम और पारिवारिक स्नेह एक ही सूत्र में गुँथ जाते है!
धर्मशास्त्रों में उपाकर्म का अर्थ है—आरंभ करना, निकट लाना।‘उपाकर्म’ वेदाध्ययन का आरंभ था। यह वह समय होता था जब विद्यार्थी गुरु के पास पुनः एकत्र होकर नया अध्ययन सत्र प्रारंभ करते थे।

धर्मग्रंथों के अनुसार, सामवेदियों का उपाकर्म भाद्रपद शुक्ल तृतीया, हस्त नक्षत्र में होता है और इस दिन मलमास आदि का कोई प्रभाव नहीं माना जाता। इस दिन का धार्मिक महत्व केवल जनेऊ बदलने में नहीं, बल्कि आत्मसंयम, आत्मशुद्धि और नए संकल्प के साथ जीवन की नई शुरुआत में निहित है।

वैदिक काल में इसके तीन चरण थे- प्रायश्चित संकल्प – बीते समय में हुई भूलों और पापों का शुद्धिकरण।

यज्ञोपवीत धारण करना आत्मसंयम और जिम्मेदारी का प्रतीक माना जाता है!
स्वाध्याय के द्वारा ऋषि, छंद, स्मृति और वेद-वेदांग का पुनः अध्ययन किया जाता था।वैसे भी यज्ञोपवीत को द्विजत्व का प्रतीक माना गया—
“जन्मना जायते शूद्रः, संस्कारात् द्विज उच्यते”
जन्म से सभी शूद्र होते हैं, संस्कार से ही मनुष्य ‘द्विज’ कहलाता है।

ऋग्वेदी और यजुर्वेदी ब्राह्मण जहाँ श्रावणी पूर्णिमा को उपाकर्म करते हैं, वहीं सामवेदी ब्राह्मण भाद्रपद शुक्ल तृतीया, हस्त नक्षत्र में यह अनुष्ठान करते हैं।
इस दिन मलमास का विचार नहीं किया जाता।

कुछ क्षेत्रों में जन्माष्टमी को हरेला बोकर हरतालिका तीज पर उसे काटना, इस दिन की शुरुआत का प्रतीक है—नए जीवन और समृद्धि का संकेत।यज्ञोपवीत धारण आत्म संयम का संस्कार है। पुराना जनेऊ उतारकर नया पहनना केवल वस्त्र बदलने जैसा नहीं, बल्कि पुराने दोष, आलस्य और नकारात्मकता को त्यागकर स्वयं को एक नये जीवन के लिए तैयार करना है। वैदिक परंपरा के अनुसार, जन्म से सभी मनुष्य शूद्र होते हैं, संस्कारों के द्वारा ही वे ‘द्विज’ कहलाते हैं। यही कारण है कि इस दिन स्नान, प्रायश्चित संकल्प, ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान और स्वाध्याय की शुरुआत होती है।

आज रक्षाबंधन भाई-बहन के स्नेह का पर्व है, लेकिन वैदिक स्वरूप में इसका दायरा बड़ा था—गुरु अपने शिष्य को रक्षासूत्र बांधकर ज्ञान की रक्षा का आशीर्वाद देते थे।
ब्राह्मण अपने यजमान को धर्म-संरक्षण का संकल्प दिलाते थे।बहन अपने भाई की दीर्घायु और सुख की कामना करती थी।रक्षासूत्र बांधते समय यह मंत्र उच्चारित होता था—

“येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबलः।तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥”
अर्थात, जिस सूत्र से राजा बलि बंधे थे, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूँ जो तुम्हारी रक्षा करेगा

समय की रफ़्तार ने रिश्तों की भौगोलिक और भावनात्मक दूरी बढ़ा दी है।आज हर त्योहार बाजारों में सजावट और अर्थ खोकर अर्थ पैसो से निभ रहा, प्रदर्शन और बनावट बस.

कई भाई-बहन मीलों दूर रहते हैं—कुछ देशों में, कुछ शहरों में—और कुछ एक ही शहर में रहकर भी व्यस्तताओं में उलझे रहते हैं।

फिर भी एक कहावत है—
“जिनके द्वार पर बहन के चरण नहीं पड़ते, वह द्वार अशुद्ध हैं।”

यह केवल प्रतीक है, जो बताता है कि बहन का स्नेह और आशीर्वाद घर की पवित्रता का हिस्सा है।

डाक से भेजी राखी हो, वीडियो कॉल पर तिलक हो या हाथ से बंधा धागा—पवित्रता का भाव एक सा रहता है.

कनखल में त्रिपाठी मोहल्ले में रक्षा बंधन

मेरा मायका कनखल में है, शिव की ससुराल में जहाँ बेटी बिन निमंत्रण भी देहली छू कर पवित्रता लाती है यहाँ की परंपरा भी है। इसमें बहन ससुराल से मायके लौटने से पहले भाइयों के घर जाती है, उनका आतिथ्य और आशीर्वाद लेती है।रक्षाबंधन का केंद्र बिंदु “रक्षा और संकल्प” है, जबकि शाम बेटी का उद्देश्य “मिलन और संवाद” है।
दोनों ही रिश्तों को मजबूत करने के साधन हैं, बस भाव का स्वर अलग है।

यम और यमी की कथा भी बताती है कि बहन का स्नेह समय और मृत्यु से भी परे है।सामवेदी उपाकर्म सिखाता है कि रक्षा केवल शरीर की नहीं, बल्कि ज्ञान, संस्कृति और रिश्तों की भी होनी चाहिए।भारतीय जीवन दर्शन की दृष्टि से उपाकर्म और रक्षाबंधन का यह संगम केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि जीवन में नवीनीकरण, जिम्मेदारी और स्नेह का प्रतीक है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि चाहे समय कितना भी बदल जाए, रिश्तों की डोर, अगर सच्चे वचन और आस्था से बंधी हो, तो कभी नहीं टूटती। तिवारी और त्रिपाठी समुदाय की यह विशिष्ट परंपरा हमें अपने मूल और अपने कर्तव्य, दोनों की याद दिलाती है

रक्षाबंधन और उपाकर्म हमें यह स्मरण कराते हैं कि—
रिश्तों को समय और संवाद की जरूरत है।परंपराओं को जीवित रखना हमारी जिम्मेदारी है।आत्मसंयम जीवन की रीढ़ है।राखी का धागा उतना ही मजबूत है, जितना मजबूत उसे बांधने वाला स्नेहऔर यही धागा हमें हमारे अतीत से जोड़कर भविष्य तक ले जाता है—संस्कृति के साथ, अनुशासन के साथ, और अपनत्व के साथ।

(डॉ. मेनका त्रिपाठी)

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