Death: शोक, संवेदना और विज्ञान के दायरे में पशुओं के लिये जीवन के अंत को समझना क्या आसान है?
मृत्यु मनुष्य के लिए एक गूढ़ और भयावह सत्य है। हमने इसके चारों ओर संस्कृति, धर्म और दर्शन की दीवारें खड़ी कर दी हैं ताकि इस अंतिम सच्चाई को समझा जा सके, स्वीकारा जा सके और उससे उबरने का रास्ता बनाया जा सके। लेकिन क्या केवल मनुष्य ही इस भावनात्मक और बौद्धिक संघर्ष से जूझता है? क्या अन्य प्राणियों में भी शोक, वियोग और मृत्यु की चेतना होती है?
हाल के वर्षों में जानवरों के व्यवहार का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत किए हैं जो इस प्रश्न को और भी गहराई देते हैं। विशेष रूप से हाथियों, व्हेल, बंदरों और पक्षियों के व्यवहार में हमें शोक की संभावनाएं दिखाई देती हैं—जो न केवल हमें हैरान करती हैं, बल्कि हमारे अपने अस्तित्व को नए दृष्टिकोण से देखने को मजबूर करती हैं।
शोक की अनुभूति: केवल इंसानों तक सीमित नहीं?
शोक जताने के लिए मृत्यु की समझ आवश्यक नहीं, लेकिन यह उसे और गहरा बना सकती है। 2018 में ‘टाहलेक्वा’ नाम की एक मादा किलर व्हेल ने अपने मृत बच्चे को 17 दिनों तक पानी की सतह पर उठाए रखा और 1000 मील तक तैरती रही। यह घटना दुनिया भर में सुर्खियों में रही। कुछ वैज्ञानिकों ने इसे मातृ शोक कहा, जबकि दूसरों ने इसे ‘जानकारी की कमी’ बताया—शायद व्हेल को समझ ही न आया हो कि उसका बच्चा मर चुका है।
लेकिन इस बहस से बड़ा सवाल यह है: क्या जानवरों में भावनाएं होती हैं, या हम इंसान अपनी भावनाएं उन पर आरोपित कर रहे हैं? क्या जानवरों में मृत्यु को समझने की बौद्धिक या भावनात्मक क्षमता होती है?
हाथियों का अंतिम संस्कार: बंगाल की चाय बगानों से मिली विचित्र गवाही
2024 की शुरुआत में उत्तर बंगाल के चाय बगानों में शोधकर्ताओं ने पाँच हाथी बच्चों के शव पाए जो नहरों में दफनाए गए थे, उनके पैर आकाश की ओर थे और मिट्टी को समतल किया गया था। ट्रैप कैमरों और पैरों के निशानों से पता चला कि ये क्रियाएं बच्चों के झुंड ने रात में की थीं।
आईएफएस अधिकारी परवीन कसवां और राजनीतिक पारिस्थितिकी विशेषज्ञ आकाशदीप रॉय ने इन घटनाओं को ‘जानबूझकर किया गया अंतिम संस्कार’ बताया। यह खोज हाथियों की सामाजिक और बौद्धिक जटिलता की ओर इशारा करती है—शायद वे भी मृत्यु के बाद की विधियों में विश्वास रखते हों, जैसे कि इंसान करते हैं।
मृत्यु की धारणा: क्या जानवर समझते हैं कि मृत्यु अपरिहार्य है?
अगर कोई जानवर यह समझ ले कि मृत्यु एक अवश्यंभावी सत्य है, तो इसका असर उसकी मानसिकता और व्यवहार पर क्या होगा? प्रसिद्ध आनुवंशिकीविद् डैनी ब्रॉअर का मानना था कि मृत्यु की चेतना इतना भय उत्पन्न करती है कि यह विकास की दृष्टि से एक ‘डेड एंड’ हो सकता है। मनुष्यों ने इससे निपटने के लिए धर्म, दर्शन और प्रतीकों का सहारा लिया। अर्नेस्ट बेकर की किताब The Denial of Death के अनुसार, मानव सभ्यता का बड़ा हिस्सा मृत्यु के भय से प्रेरित है।
टेरर मैनेजमेंट थ्योरी के अनुसार, मृत्यु के डर से निपटने के दो तरीके हैं—एक जटिल जैसे धर्म, नैतिकता, समाज; और एक सरल जैसे परिवार से प्रेम, समुदाय के लिए योगदान। क्या जानवर भी इस सरल स्तर पर मृत्यु की चेतना के कारण अपने व्यवहार में परिवर्तन लाते हैं? यह एक खुला सवाल है।
जानवरों में प्रतीकात्मक सोच: संभावनाएं और सीमाएँ
मनोवैज्ञानिक टॉम पिस्ज़िंस्की का मानना है कि टेरर मैनेजमेंट थ्योरी में वर्णित तीन बौद्धिक क्षमताएँ—भविष्य के बारे में सोचना, प्रतीकात्मक सोच और आत्म-चिंतन—कई जानवरों में सीमित रूप में मौजूद हैं। उदाहरण के लिए:
क्या मोंक पैराकीट अपने घोंसले में लकड़ियां जोड़ते हुए किसी उच्च उद्देश्य का अनुभव करता है?
क्या एक गोरिल्ला अपने साथी को विशेष स्नेह से संवारते हुए यह महसूस करता है कि ये क्षण सीमित हैं?
वैज्ञानिक उत्तर नहीं दे सकते, लेकिन यह कल्पनाएं अब पहले से ज़्यादा वैज्ञानिक रूप से स्वीकार्य हो गई हैं।
प्राकृतिक अवलोकन और सीमाएँ
कई जानवरों में मृत साथियों के प्रति विशेष व्यवहार देखा गया है:
कैमरा ट्रैप से रिकॉर्ड हुआ कि जंगली सूअरों (peccaries) ने एक मरी हुई साथी के पास 10 दिन बिताए, उसके शरीर की रक्षा की।
हाथियों ने शवों के आसपास पत्ते और टहनियाँ जमा कीं—संभवत: एक प्रतीकात्मक श्रद्धांजलि, या सिर्फ खाने में रुचि की कमी?
चिंपैंजी अपने मरे हुए परिजनों के पास देर तक रहते हैं, उन्हें बार-बार छूते हैं, सूंघते हैं।
लेकिन इन क्रियाओं के पीछे की मंशा को समझ पाना मुश्किल है क्योंकि वैज्ञानिक दृष्टि से कुछ सीमाएँ हैं—नैतिक, व्यवहारिक और पद्धतिगत।
प्रयोगशाला में प्रयोग: क्या मृत्यु को समझ सकते हैं तोते और लोमड़ियाँ?
वियना के वेटरनरी मेडिसिन विश्वविद्यालय में डॉ. उसुना-मास्करो और उनकी टीम यह जानने की कोशिश कर रही है कि क्या गॉफिन के काकाटू मृत्यु की अपरिवर्तनीयता (irreversibility) को समझते हैं। एक प्रस्ताव यह है कि मरे हुए साथी के संपर्क में आने के बाद क्या जानवरों में सहानुभूति या सुरक्षा व्यवहार बढ़ता है?
इस तरह के प्रयोगों से यह समझने में मदद मिल सकती है कि जानवर मृत्यु को केवल एक शारीरिक घटना के रूप में देखते हैं या उससे अधिक?
नैतिक प्रश्न और मानवीय ज़िम्मेदारियाँ
शोधकर्ता बारबरा किंग का कहना है: अगर जानवर मृत्यु को किसी भी रूप में समझते हैं, तो हमें उनके प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिए। हम मनोरंजन, भोजन, या विज्ञान के नाम पर जिन जानवरों की बलि देते हैं, क्या उनके भीतर भी मृत्यु का बोध, शोक और हानि की अनुभूति होती है?
टाहलेक्वा की कथा हो या बंगाल के हाथियों की, इन सभी उदाहरणों में एक गहरी मानवीयता दिखाई देती है—जो हमें जानवरों से जोड़ती है। इस बिंदु पर फर्क मायने नहीं रखता कि क्या जानवर मृत्यु को हमारी तरह समझते हैं। मायने यह रखता है कि वे भी जीवन और हानि को अनुभव करते हैं।
मानव-विशिष्ट मृत्यु बोध और कल्पना की शक्ति
शायद यह सत्य है कि केवल मनुष्य ही मृत्यु को इतिहास और भविष्य के लेंस से देख सकता है:
किसी प्रिय की बुरी आदत पर चिढ़ने के बाद उस आदत को याद कर आंसू बहाना।
यह सोचना कि काश हमने कुछ अलग किया होता।
या खुद को दोष देना, फिर खुद को माफ कर देना।
शायद यह क्षमताएं हमें विशेष बनाती हैं, लेकिन हमारी संवेदना का विस्तार तब होता है जब हम इन क्षमताओं की छाया जानवरों पर भी पड़ती हुई देखें।
निष्कर्ष: समानता ज़्यादा ज़रूरी है या भिन्नता?
सवाल यह नहीं कि जानवर मृत्यु को हमारी तरह समझते हैं या नहीं। सवाल यह है कि क्या वे जीवन को समझते हैं, और उसकी हानि को महसूस करते हैं?
मृत्यु पर शोध में रस्मों, प्रतीकों और कथाओं पर जोर दिया जाता है। लेकिन मरे हुए साथी के पास दस दिनों तक बैठा जंगली सूअर, या अपने मरे हुए बच्चे को ढोती टाहलेक्वा, इन सबसे भी ज़्यादा गहरे संकेत हैं। यह संकेत हैं उस अदृश्य पुल के, जो हमें बाकी जीव-जगत से जोड़ते हैं।
और शायद इसी पुल से गुजर कर हम एक बेहतर दुनिया की ओर बढ़ सकते हैं—जहां हर जीवन की अहमियत हो, और हर मृत्यु एक मायने रखती हो।
(अर्चना शेरी)