भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध की बात होती है तो बात पूरी कभी नहीं होती..नागरिकों और राष्ट्रीय सरकार को समझना होगा कि इस दिशा में रुझान, चुनौतियाँ और आगे की राह क्या हो..
भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध आज भी एक गंभीर सामाजिक और शासन-संबंधी समस्या बने हुए हैं। ये अपराध घर के भीतर से लेकर सार्वजनिक स्थानों, कार्यस्थलों और ऑनलाइन दुनिया तक फैले हुए हैं। पिछले बीस वर्षों में कई बड़े कानूनी सुधार हुए, नई संस्थाएँ बनीं और समाज में निगरानी भी बढ़ी, लेकिन इसके बावजूद महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों में गिरावट के बजाय लगातार बढ़ोतरी देखी जा रही है।
इन घटनाओं के सबसे बड़े कारण लैंगिक असमानता की गहरी जड़ें, कानून लागू करने की सीमाएँ, संस्थागत व्यवस्थाओं की कमी और डिजिटल होते समाज में अपराध के नए रूप हैं, जिनसे निपटना अब पहले से अधिक कठिन हो गया है।
आंकड़ों से उभरती चिंताएँ
NCRB के अनुसार 2022 में महिलाओं के खिलाफ कुल 4,45,256 मामले दर्ज हुए, जो पिछले वर्ष की तुलना में 4 प्रतिशत अधिक हैं। इसका मतलब यह है कि हर घंटे लगभग 51 शिकायतें पुलिस के पास पहुंचीं। देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध दर भी 2021 के 64.5 से बढ़कर 2022 में 66.4 प्रति एक लाख महिलाओं तक पहुँच गई। इन आँकड़ों से स्पष्ट है कि नीतिगत हस्तक्षेपों के बावजूद अपराध बढ़ रहे हैं।
राज्यवार तुलना में दिल्ली, हरियाणा और तेलंगाना जैसे राज्यों में अपराध दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक दर्ज हुई। वहीं गुजरात और तमिलनाडु जैसे राज्यों में अपराध दर कम दिखती है, लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार कम रिपोर्टिंग अक्सर सामाजिक डर, शिकायत तंत्र की कमजोरी और कलंक के कारण होती है। MoSPI की रिपोर्टें बताती हैं कि उन राज्यों में जहाँ पुलिस व्यवस्था कमजोर है और महिलाओं की संस्थागत पहुंच सीमित है, वहाँ अक्सर मामले कम दर्ज होते हैं, भले ही वास्तविकता बिल्कुल विपरीत हो।
NFHS की रिपोर्टें और छिपी हुई हिंसा
NFHS-5 के आंकड़े दिखाते हैं कि वास्तविकता NCRB की रिपोर्ट की तुलना में कहीं अधिक भयावह है। सर्वे के अनुसार भारत में एक-तिहाई विवाहित महिलाएँ अपने जीवन में किसी न किसी रूप में—शारीरिक, यौन या भावनात्मक—हिंसा का सामना कर चुकी हैं। लगभग 6 प्रतिशत महिलाओं ने यौन हिंसा की शिकायत की। यह अंतर बताता है कि महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक कलंक, प्रतिशोध के डर और संस्थागत अविश्वास के कारण शिकायत दर्ज ही नहीं करवाता। इस प्रकार, पुलिस रिकॉर्ड केवल हिमखंड का ऊपरी हिस्सा दिखाते हैं, जबकि हिंसा की व्यापकता कहीं अधिक है।
पाँच साल का परिदृश्य और अपराधों के प्रकार
यदि 2018 से 2022 तक के आँकड़ों को देखा जाए तो यह स्पष्ट होता है कि मामलों में लगातार बढ़ोतरी हुई है। 2018 में 3.78 लाख मामले दर्ज हुए थे, 2020 में थोड़ी कमी आई, लेकिन 2021 में एक बार फिर तेज़ उछाल आया और 2022 तक मामलों की संख्या बढ़कर 4.45 लाख से अधिक हो गई।
2022 में दर्ज मामलों में पति या परिवार द्वारा की जाने वाली क्रूरता सबसे बड़ी श्रेणी थी। इसके बाद अपहरण और किडनैपिंग, शील भंग करने के इरादे से हमला और बलात्कार के मामले प्रमुख रूप से सामने आए। अपहरण के मामले वर्षों में लगातार बढ़ते रहे और हरियाणा इस श्रेणी में अक्सर शीर्ष पर दिखाई देता है। इसी तरह महिलाओं की शील के खिलाफ होने वाले अपराधों में भी बहुत तेज़ बढ़ोतरी दर्ज की गई। विशेष रूप से IPC की धारा 509 के अंतर्गत आने वाले मामलों में 2018 की तुलना में 2022 में कई गुना वृद्धि हुई।
बलात्कार के मामलों में भी सुधारों के बावजूद कोई उल्लेखनीय गिरावट नहीं आई है। 2012 के बाद लागू हुए बड़े कानून संशोधनों और कठोर दंड के बावजूद 2018 से 2022 तक पीड़ितों की संख्या बढ़ती ही गई। इससे पता चलता है कि कानून का भय पर्याप्त नहीं है और न तो जांच प्रक्रिया और न ही पीड़ित सहायता तंत्र मुकम्मल रूप से काम कर पा रहे हैं।
डिजिटल अपराधों में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। ऑनलाइन स्टॉकिंग, सेक्सटॉर्शन और महिलाओं की निजी तस्वीरों या वीडियोज़ के प्रसारण जैसी घटनाएँ तेजी से बढ़ी हैं। इंटरनेट जितनी तेज़ी से विकसित हो रहा है, पुलिस और जांच एजेंसियाँ उतनी ही धीमी गति से खुद को डिजिटल अपराधों के लिए तैयार कर पा रही हैं।
शहरी और ग्रामीण भारत की अलग तस्वीरें
महानगरों में यौन उत्पीड़न, स्टॉकिंग, कार्यस्थल पर होने वाला उत्पीड़न और साइबर अपराधों की घटनाएँ अधिक सामने आती हैं। दिल्ली लगातार सबसे ऊपर है, उसके बाद मुंबई, बेंगलुरु और हैदराबाद आते हैं। इसका एक बड़ा कारण यह है कि शहरी महिलाओं में अधिकारों के प्रति जागरूकता अधिक है, साथ ही संस्थागत और डिजिटल पहुंच भी बेहतर है।
इसके विपरीत ग्रामीण क्षेत्रों में हिंसा का स्तर अधिक है—लेकिन रिपोर्टिंग बहुत कम है। NFHS के अनुसार ग्रामीण महिलाओं में घरेलू हिंसा का अनुभव शहरों की तुलना में कहीं अधिक पाया गया। पितृसत्तात्मक सामाजिक ढाँचा, बदनामी का डर, सीमित गतिशीलता, और कमजोर पुलिस व्यवस्था—ये सभी वजहें ग्रामीण महिलाओं को आवाज उठाने से रोकती हैं। इसलिए, जहाँ शहरों में मामले अधिक दर्ज होते हैं, वहीं ग्रामीण भारत में हिंसा अधिक झेली जाती है।
रिपोर्टिंग के अंतर को समझना: NCW और NCRB
NCW की 2023–24 की रिपोर्ट में लगभग 28,650 शिकायतें दर्ज हुईं, जिनमें गरिमा के साथ जीवन के अधिकार, घरेलू हिंसा, दहेज उत्पीड़न और छेड़छाड़ प्रमुख रहे। वहीं NCRB 2022 में 4.45 लाख से अधिक मामले दर्ज करता है। यह अंतर इसलिए है क्योंकि NCW की गिनती केवल उन शिकायतों पर आधारित है जो सीधे आयोग तक पहुँचती हैं, जबकि NCRB पुलिस द्वारा दर्ज किए गए FIRs को दर्ज करता है। NFHS इन दोनों से बहुत आगे जाकर यह दिखाता है कि वास्तविक हिंसा उससे भी कई गुना अधिक है। यह तीनों स्रोत मिलकर बताते हैं कि रिपोर्टिंग और वास्तविकता के बीच एक विशाल अंतर मौजूद है।
नीतिगत ढाँचा और उसके भीतर की कमियाँ
भारत में महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई कानून बनाए गए हैं—जैसे दहेज निषेध अधिनियम, घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम, आपराधिक कानून संशोधन और POSH कानून। इन कानूनों ने अपराधों की परिभाषा को विस्तृत किया और सज़ाओं को सख्त किया है। निर्भया, कठुआ और हाथरस जैसे मामलों ने भी सरकार को तेज़ी से कदम उठाने पर मजबूर किया, जिसके बाद फास्ट-ट्रैक कोर्ट से लेकर फॉरेंसिक अभ्यासों तक सुधार किए गए।
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने वन-स्टॉप सेंटर, 181 हेल्पलाइन, नारी अदालतें और मिशन शक्ति जैसी योजनाएँ शुरू की हैं। वहीं राष्ट्रीय महिला आयोग ने स्वतः संज्ञान, शिकायत समाधान और साइबर अपराधों पर ध्यान बढ़ाया है।
लेकिन इन सभी प्रयासों के बाद भी कई गंभीर चुनौतियाँ बनी हुई हैं। बलात्कार मामलों में दोषसिद्धि दर अभी भी बेहद कम है। फॉरेंसिक व्यवस्था कमजोर है, गवाहों पर दबाव आम है और ट्रायल में अक्सर लंबा समय लग जाता है। निर्भया फंड का उपयोग भी कई राज्यों में बहुत कम हुआ है। इसके अलावा पुलिस, न्यायपालिका, स्वास्थ्य प्रणाली और विभिन्न सरकारी एजेंसियों के बीच समन्वय की कमी बार-बार समस्याएँ पैदा करती है। ग्रामीण क्षेत्रों में संस्थान और सहायता तंत्र पहले से ही काफी कमजोर हैं। डेटा संग्रह में भी एकरूपता की कमी है, जिससे नीति बनाना कठिन हो जाता है।
आगे का रास्ता क्या है
महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा से निपटने के लिए भारत को अब छोटे-छोटे सुधारों से आगे बढ़कर एक समग्र, वैज्ञानिक और संवेदनशील तंत्र विकसित करने की आवश्यकता है। शिकायत दर्ज करने की प्रक्रिया को आसान और गोपनीय बनाना होगा, जांच को फॉरेंसिक आधार पर मजबूत करना होगा, ग्रामीण इलाकों में सहायता संस्थानों को दुरुस्त करना होगा और एक统一 डेटा सिस्टम बनाना होगा। इसके अलावा स्कूलों, कॉलेजों, कार्यस्थलों और समुदायों में लैंगिक संवेदनशीलता को बढ़ावा देना होगा। डिजिटल अपराधों से निपटने के लिए भी मजबूत तंत्र और तकनीकी दक्षता विकसित करना जरूरी है।
अंततोगत्वा समझ में ये आता है कि
महिलाओं के खिलाफ अपराध केवल कानूनी या संस्थागत समस्या नहीं हैं; वे समाज में गहरे बैठे पितृसत्तात्मक ढाँचों, चुप्पी की संस्कृति और अपराध के बदलते रूपों से उत्पन्न होते हैं। 2013 के बाद कानूनों में भले ही महत्वपूर्ण सुधार हुए हों, लेकिन कानून और वास्तविकता के बीच की दूरी अब भी बहुत चौड़ी है। महिलाओं के लिए वास्तव में सुरक्षित भारत तब ही बनेगा जब बेहतर कानूनों के साथ-साथ बेहतर क्रियान्वयन, मजबूत संस्थान और समाज की मानसिकता में वास्तविक बदलाव एक साथ आगे बढ़ेंगे।
(त्रिपाठी पारिजात)



