Menka Tripathi की गहन गंभीर लेखनी के माध्यम से पढ़िए उनके मसृण भाव अतीत में अस्तित्वमान आले को लेकर..
समय की दीवारों से स्मृतियाँ उसी तरह ढहा दी जाती हैं, जैसे पुरानी हवेलियों की दीवारों से आले! आज की पीढ़ी के लिए “आला” एक अपरिचित शब्द हो सकता है, ठीक वैसे ही जैसे किसी बुजुर्ग की नसीहत जो आधुनिकता की दौड़ में कहीं गुम हो गई हो।
मुझे याद है, मेरी नानी और दादी की विशाल हवेलियों में दीवारों पर बने ये आले जिनमें दिए, चाबियाँ और अन्य उपयोगी सामान रखे जाते थे। पुराने लोगों का तो यहाँ तक कहना था कि “घर, घर नहीं बिन आलों का, ससुराल, ससुराल नहीं बिन सालों की !” ये आले केवल वस्तुओं को रखने की जगह नहीं थे, बल्कि घर की परंपराओं, सुरक्षा और जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा थे।
परंतु समय बदला, आधुनिकता की बयार चली और इन आलों की जगह सपाट दीवारों और छोटे कमरों ने ले ली। तेजी से बदलते वास्तुशिल्प में जहाँ पहले बड़े-बड़े आलों को महत्व दिया जाता था, वहीं आज साफ-सफाई और विद्युत सुविधा के चलते इन्हें पुरानी परंपरा मानकर हटा दिया गया।
“आला” शब्द का भाषाई और ऐतिहासिक सफर
भाषा विज्ञान मेरे लिए हमेशा से रुचिकर विषय रहा है—शब्दों को उधेड़ना और फिर नए संदर्भों में उन्हें जोड़ना मेरे लिए किसी रचनात्मक यात्रा से कम नहीं। “आला” शब्द भी एक रोचक इतिहास समेटे हुए है।
“आला” मूल रूप से अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है श्रेष्ठ या उच्च। इसीलिए “आला हज़रत” या “आला दर्जा” जैसे प्रयोग हमें सुनने को मिलते हैं। परंतु वास्तुकला में “आला” शब्द का प्रयोग कहीं न कहीं पुर्तगाली प्रभाव का परिणाम हो सकता है, क्योंकि यह “अलमारी” शब्द के बहुत करीब है। उत्तर भारत में इसे “ताक” या “ताखा” कहा जाता है, जिसका विशेष रूप से दिया रखने के लिए उपयोग होता था। मैथिली भाषा में इसे “बिजिज्का” कहा गया है, जो संस्कृत के “छदि” शब्द से निकले “छद्दीका” का परिवर्तित रूप है।
आधुनिकता और वास्तुकला में आलों की वापसी
समय के साथ बदलती जीवनशैली में आलों का महत्व भले ही कम हो गया, लेकिन वास्तुशिल्प और ऐतिहासिक धरोहरों में इनका आकर्षण बना हुआ है। होटल, कैफे, पारंपरिक घरों और एंटीक थीम वाले नए डिजाइनों में आलों को फिर से जगह दी जा रही है। न केवल सौंदर्य की दृष्टि से, बल्कि जगह के कुशल उपयोग और एक प्राचीन विरासत को संरक्षित रखने के लिए भी इनका पुनरुत्थान हो रहा है।
आला: एक स्मृति, एक पहचान
आले केवल दीवार में बनी एक जगह नहीं थे, वे संस्कृति, परंपरा और परिवार की सुरक्षा का प्रतीक थे। वे हमें याद दिलाते हैं कि आधुनिकता में आगे बढ़ते हुए भी हमें अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहिए। संस्कृति और परंपरा का सम्मान केवल अतीत को सहेजने में नहीं, बल्कि उसे नए रूप में अपनाने में है। इसलिए शायद अब समय आ गया है कि हम दीवारों की सादगी में फिर से इन आलों की गरिमा लौटाएं—न केवल वास्तुशिल्प में, बल्कि अपनी स्मृतियों में भी!
(मेनका त्रिपाठी)