Poetry by Kamlesh Kumar: मन के तथागत मैं तुम्हारी अनुगामिनी – में पढ़िए गहन भाव प्रेम के जीवन की यात्रा में..
संग रहूंगी जीवन-सत्य की शोध यात्राओं में;
उतनी ही दूरी पर, जितने समय में
दूसरा कदम पहले तक तय करता है…
नहीं किया यात्राओं के लिए विशेष प्रबंध,
केवल चल निकली हूॅं स्वयं से बाहर …
अनुभवों के पाथेय से तृप्त रहूंगी मैं!
“पथ में खुलेंगे इंद्रियों के घोड़े,
विवेक की वल्गा से इतर सम की चाल में”
मिलेंगे मार्ग में अनुभूतियों के कोस-मीनार
उन्हीं से होगा अनुमान कि कितना बीता
और रह गया है कितना शेष ?
वहीं मिलेंगे चिह्न, पूर्व के यात्रियों के
जो करेंगे सुनिश्चित कि कितने सभ्य हुए हैं हम!
दिशाओं की दशा तय करने से क्या लाभ
प्रत्येक दिशा में झुका है आकाश पृथ्वी पर…
इसीलिए, दिक्सूचक यंत्र फेंक आई घंटाघर की छत पर।
किसी भूगोल और सामाजिक शास्त्र से मैं अज्ञानी,
हे ईश,मेरा अनुकरणीय हो क्षमतावान!