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Friday, March 14, 2025

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Book by मीनाक्षी मिश्र: “स्वप्नों के निर्झर में” है एक रोचक काव्य संग्रह

“स्वप्नों के निर्झर में” मीनाक्षी मिश्र जी का पहला काव्य संग्रह है। त्रेसठ कविताओं को जिन पाँच खण्डों में बाँटा गया है वे हैं – कविताएँ, आश्वस्तियाँ, स्त्री-विषयक, आत्मालाप और अनहद। हरेक खण्ड अपने कहन में अनूठा है। उनका शब्दों को बरतने का सलीका बेहद प्रभावपूर्ण है।
अपने विचारों को सम्प्रेषित करने के लिए वाक्यों को किस जगह से तोड़ना है उन्हें बखूबी मालूम है।
स्त्री विषयक कविताओं में कहीं भी पुरुष के प्रति कटुता, दोषारोपण नहीं बल्कि अपनी बातों को दृढ़ता से रखने की चाह है। उम्मीद उनकी कविता का बहुमूल्य पक्ष है, पॉजिटिविटी एक अनिवार्य तंतु।
प्रेम का अनुवाद त्रुटिपूर्ण हुआ है हर बार
अपने भाषा शास्त्र पर गर्व करते अधिकतर अनुवादक अनुभवहीन थे
उन्होंने प्रेम को यातना समझा और प्रेमियों को विक्षिप्त
प्रेम जैसे सघन शब्द को बरत पाने की योग्यता
उनमें नहीं थी
वे नहीं जान पाए प्रेम में शिखर का नहीं
उत्स का होता है महत्व
थिरता के बजाय स्पंदन होता है प्रेम में
मीनाक्षी प्रेम को स्थिर या सतही नहीं, बल्कि स्पंदनशील और निरंतर प्रवाहित होने वाली अनुभूति के रूप में प्रस्तुत करती हैं। कवयित्री प्रेम को सिर्फ एक भावना नहीं, बल्कि एक दर्शन के रूप में देखती हैं, जिसमें समर्पण, स्वीकार्यता और एक अनंत यात्रा शामिल है। वे मानती हैं कि प्रेम अनुभवों और संवेदनाओं की धारा में बहता रहता है।
यह कविता प्रेम को सिर्फ़ एक रोमांटिक या पारंपरिक दृष्टिकोण से देखने की जगह उसे एक गहरे, आध्यात्मिक और जीवन के व्यापक अनुभव से जोड़ती है।

मोनोलॉग

भाषा के नियामकों!
हालांकि यह एक आत्म-सम्वाद है
किंतु सम्बोधन का बाहुल्य तुम्हें दुविधाग्रस्त कर सकता है
सो बेहतर होगा यदि इस मोनोलॉग को एक गम्भीर
याचना की तरह पढ़ा जाए
“मोनोलॉग” शीर्षक से लिखी गई कविता में भाषा, कला, काव्य, जीवन, उसकी सीमाओं और समाज में नैतिकता और समाज से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर गंभीर चिंतन है। आत्म-संवाद (monologue) के रूप में लिखी गई इस कविता में विभिन्न वर्गों ( धावक, कला मर्मज्ञ, कवि और सज्जन ) को संबोधित करते हुए कवयित्री ने उसे दार्शनिकता से जोड़ा है। वे इसमें भाषा को सम्वाद से इतर आत्म-सम्वाद के रूप में प्रभावी रूप से ढालते हुए मानव जीवन की अनिश्चितता और उसकी असीम संभावनाओं को इंगित करती हैं।
कला की सहज व्याख्या, उसकी भूमिका को समाज में व्यापक रूप से देखने की अपील करती हैं। जहाँ जीवन के वैविध्यपूर्ण और जटिल स्वभाव के बावजूद सुन्दर कविताओं का आग्रह है वहीं यह कविता समाज की वर्तमान स्थिति पर कटाक्ष भी करती है और नैतिकता बनाए रखने की अपील भी।
सिर्फ़ भावनात्मक नहीं बल्कि बौद्धिक रूप से भी सशक्त इस कविता की शैली में आत्मसंवाद की गूंज है, कविता एक वैचारिक प्रवाह में बहती नदी सी है जिसके शब्द चयन उन्नत और विचारशील हैं। यह कविता केवल भावनाओं का संप्रेषण नहीं है, बल्कि यह पाठक को आत्ममंथन के लिए प्रेरित करने वाली एक बौद्धिक कृति भी है।

“नायिका”

मैं भली-भांति परिचित हूं अपने सूक्ष्म अस्तित्व से
मेरी तुलना ब्रह्मांड की मंदाकिनियों से ना करें
मेरे चींटी प्रयासों पर
प्रश्नचिह्न न लगाएँ
मैंने स्वयमेव चुना है
निष्ठा का निस्संग मार्ग
मदद का हाथ बढ़ाकर मुझे शर्मिंदा न करें
आगे वे कहती हैं –
मुझे विश्वास है अपनी ऊर्ध्वमुखी चेतना पर
अपने जीवन की नायिका मैं खुद बनना चाहती हूं!
आत्मनिर्भरता, आत्मसम्मान और स्वतंत्र चेतना की गम्भीर अभिव्यक्ति है “नायिका” कविता । कवयित्री अपने “सूक्ष्म अस्तित्व” से परिचित है और नहीं चाहती कि उसकी तुलना किसी विशाल ब्रह्मांडीय सत्ता की जाए। यहाँ उस की आत्म-स्वीकृति झलकती है, वह अपने होने की सीमाओं को जानती है, लेकिन फिर भी दृढ़ संकल्पित है।
नहीं चाहतीं कि उनके “चींटी प्रयासों” को किसी प्रकार के प्रश्नों के कटघरे में खड़ा किया जाए, अपनी कर्मठता को स्वयं सिद्ध करने में विश्वास रखती है।अनावश्यक सहानुभूति, दया या सहायता की अपेक्षा नहीं रखती क्योंकि “निष्ठा का निस्संग मार्ग” ही उनका स्वेछित मार्ग है।
उसे अपनी “उर्ध्वमुखी चेतना” पर विश्वास है और वह अपने जीवन की “नायिका” स्वयं बनना चाहती है। यह एक स्वतंत्र नारी की मुखर घोषणा है कि वह अपनी पहचान स्वयं गढ़ेगी और अपने जीवन की संचालक खुद होगी।
यह कविता पुरुष-प्रधान समाज में एक सशक्त नारीवादी स्वर है। यह नारी की आत्मनिर्भरता, नारी सशक्तिकरण और स्वतंत्रता की एक गूढ़ और प्रेरणादायक अभिव्यक्ति है।
प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग, सशक्त भाषा, आत्मविश्वास और दृढ़ता का स्वर, कविता की लय और प्रवाह हर बात इस कविता को नायाब बनाती है। कविता की हरेक पंक्ति दृढ़ता और आत्म-चेतना को बल देती है, आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान की भावना को स्पष्ट रूप से उभारती है।
वे किसी पर दोषारोपण नहीं करतीं, सशक्त रूप में अपनी बात को कहती हैं। स्त्री स्वर को दृढ़ता से रखती इस कविता में नारीवादी चेतना मुखर है । यह कविता अपनी उपस्थिति मजबूती के साथ दर्ज करती है। यह एक व्यक्तिगत अभिव्यक्ति नहीं बल्कि सम्पूर्ण नारी जाति के संघर्ष और उनकी अपनी जिन्दगी ख़ुद के बूते जिए जाने की चाह, अपनी नायिका स्वयं बनने की चाह पर हस्ताक्षर करती है, सबकी कविता बन जाती है।

“द माइ़ट ऑफ क्वायट”

कवयित्री इस कविता में यह रेखांकित करती हैं कि एक लोकतांत्रिक देश में बावजूद इसके कि हर व्यक्ति को अपनी बात कहने की आज़ादी है, वे केवल आवश्यकता भर बोलना अपना “निजी चयन” मानती हैं जिसके कारण वे प्रश्नों के घेरे में भी आ जाती हैं, और उनकी अंतर्दृष्टि पर संदेह भी किया जाता है।
“इतनी अराजकता है, और तुम चुप हो?”
“कितनी बर्बरता है और तुम चुप हो?”
इतनी सारी नकारात्मकताओं के मध्य चुप रह जाना कहीं न कहीं सामाजिक निष्क्रियता का प्रतीक बन जाता है। किन्तु वे मौन रहना ही पसन्द करती हैं क्योंकि उनका मानना है कि कभी-कभी मौन मात्र कमजोरी नहीं बल्कि एक सशक्त प्रतिक्रिया हो सकती है, आन्तरिक दृढ़ता का प्रतीक हो सकती है।
“सबसे गहरी नदियाँ चुपचाप बहती हैं…”
“मनुष्य” कविता में कवयित्री ने अत्यन्त प्रभावी ढंग से मनुष्य की आत्ममुग्धता, महत्वाकांक्षा, अस्मिता, और दोषों को उकेरा है। आत्मगौरव का शरुआती भाग धीरे-धीरे आत्मस्वीकृति में बदलता है। भाषा की प्रवाहशीलता और गूढ़ता कविता को आकर्षक बनाती है, साथ ही यह स्वीकारना कि, “मनुष्य ही तो हूँ मैं” आखिरकार उसकी सीमाओं को दर्शाता है।
गहरी अंतर्दृष्टि वाली इस कविता में मनुष्य के अहंकार, आकांक्षा और यथार्थ के बीच संघर्ष को प्रभावी रूप से दर्शाया गया है। मनुष्य का आत्ममुग्ध स्वभाव ख़ुद को “असाधारण, अमेय, अपूर्व” मानता है और चाहता है कि लोग उसे इस तरह पुकारें कि उसके लिए कोई अन्य शब्द शेष न रहे, यह उसके स्वीकारे जाने की इच्छा है। रम्य, अनन्य, अपूर्व जैसे विशेषणों से पुकारे जाने की आकांक्षा खुद को प्रसंशित किए जाने की लालसा है।
यह कविता मनुष्य के आत्ममुग्ध स्वभाव और उसकी पहचान की खोज को दर्शाती है। कवि खुद को “असाधारण, अमेय, अपूर्व” मानता है और चाहता है कि लोग उसे इस तरह पुकारें कि उसके लिए कोई अन्य शब्द शेष न रहे। यह दर्शाता है कि मनुष्य अपनी विशेषता को पहचानने और स्वीकारे जाने की तीव्र इच्छा रखता है।
लेकिन कविता का अंतिम मोड़ इसे अत्यधिक रोचक बना देता है।
“मुझे दोषहीन कहने से बचना,
बस मनुष्य ही तो हूँ मैं,
आखिरकार एक अनूठा शठ”।
“अनूठा शठ” कहना इस कविता की सबसे अनोखी विशेषता है, जहाँ कवयित्री मानवीय स्वभाव की सबसे बड़ी विडंबना उजागर करटी हैं—मनुष्य एक विरोधाभासी व्यक्तित्व है, जो खुद को महान बनाना चाहता है, लेकिन अपनी कमजोरियों से भी भरा हुआ है। “अनूठा शठ” कहकर कवयित्री इस द्वंद्व को समाप्त करती हैं।
मीनाक्षी मिश्र का यह एक खूबसूरत काव्य-संग्रह Sarv Bhasha Trust से आया हुआ एक पठनीय संग्रह है।
(अमनदीप गुजराल)

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