किसी दिन कोई बरस
बरसती किसी रात में
तुम खटखटाओगी
मेरे घर का द्वार आकुल वेग से..
जैसे खटखटाता हो कोई
अपने ही घर का द्वार
द्वार मैं खोलूंगा और
एक नि:शब्द विस्मय भर लेगा
तुमको समेट लेगा
उस रात मैं घर में ढूढूंगा
तह कर रखे कुर्ते
और बिना उनके छोटे बड़े
होने की बात हुए
तुम पहन लोगी उन्हें
उबालूंगा दाल चावल
तुम्हें खिलाउँगा
दोनों नहीं पूछेंगे
देर रात तक कुछ भी
बस समय की गोद में बैठ रहेंगे
बीच में जली होगी आग
फिर तुम्हें सुलाउँगा मूँज की खाट में
जो एक ही कम्बल होगा मेरे पास
वो तुम्हें ओढाउँगा और
अपने घुटनों में रखे सर
रात भर तुम्हें सोता हुआ देखूँगा
एक ऐसा दिन यकीनन
मेरी डायरी में दर्ज है ।
(प्रस्तुति -सीमा नारंग)