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Monday, August 4, 2025

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Menka Tripathi writes: “अन्धकार से उजाले तक – एक आध्यात्मिक आरोहण”

Menka Tripathi के इल लेख में पढ़ें तुंगनाथ के मनोरम पथ पर आध्यात्मिक आरोहण की कथा..

रात का एक बजे तुंगनाथ ट्रेक की सूचना मिलते हीं पकोड़े और चाय जैसे गले में अटक गए। सामने दहकती आग की गर्माहट और आकाश में दमकता सप्तऋषि मंडल मानो कोई संकेत दे रहे थे। मैं कुछ देर ठहर कर सोचती रही—क्या सच में यह यात्रा मेरे लिए है? रात में यात्रा का कभी स्वप्न में भी न सोचा था पर ये सच था, उस शिव का जो सत्य भी है और सुन्दर भी!

यात्रा की तैयारी और संकल्प

टोर्च, जरूरी दवाइयाँ, ग्रिप शूज़—हम सभी तैयारी में जुटे। स्नान के बाद मैंने संकल्प लिया कि जब तक मंदिर न पहुँचूँ, अन्न ग्रहण नहीं करूँगी। यद्यपि पोहा, ड्राई फ्रूट्स और सैंडविच हमारे पास थे, पर रात्रि के उस पवित्र क्षण में केवल तप का भाव था।

प्रस्थान और प्रारंभिक दृश्य

दल की वरिष्ठ सदस्य, लगभग सत्तर वर्ष की उम्र में भी पूरी ऊर्जा से सब की अगुवाई कर रही थीं। “चलना है,” बस यही उनका मंत्र था। हम मोड़ दर मोड़ चढ़ाई चढ़ रहे थे। एक शांत भाव से हमारे साथ-साथ चलता एक काला कुत्ता मानो युधिष्ठिर के स्वर्गारोहण का प्रतीक बन गया था।

जीवन-दर्शन और यात्रा का संघर्ष

साँसों की गति तेज होती जा रही थी, पर पीछे मुड़ने का कोई प्रश्न नहीं। बच्चों के चेहरे पर थकान थी, और एक सखी को समझ ही नहीं था कि “ट्रेक” क्या होता है! मैं रानीखेत में बिताए अपने वर्षों को याद कर रही थी—जहाँ पर्वत और मैं एक-दूसरे के अभ्यस्त थे। जितना हम झुकते, पहाड़ उतना ऊपर उठता, और हम चल पड़ते।साथ हीं नाभि तक सांस खींच फटाफट आठ दस कदम बिन हांफे चलना मैंने रानीखेत में हीं सीखा था!

नभ, नक्षत्र और नमी

मैंने अनगिनत बार आकाश की ओर निहारा। अब तारे नहीं, बादल चित्रित हो उठे थे। रेनकोट साथ थे, पर शिव की कृपा से न वर्षा हुई, न कोई विघ्न आया। अलार्म की हर ध्वनि मानो एक नई चेतना थी—चलो, और आगे।

कौवों का प्रदेश और पुरानी कथा

प्रभात की आहट के साथ मंदिर निकट था। तभी सीढ़ियों पर बड़े-बड़े काले कौवे मटकते हुए मिले। मैंने मुस्कुरा कर कहा, “अरे मोटे कौवों! तुम वो शापित श्वेत पक्षी तो नहीं?
प्रभव ने सुनना चाहा मैं बोली
“तुम जानते हो, ये कौवे पहले श्वेत पक्षी थे? माँ पार्वती ने एक बार बसमती चावल खाने की इच्छा जताई थी। शिवजी ने श्वेत पक्षियों को चावल लाने भेजा। वे एक बुढ़िया की हांडी से चावल चुराकर उड़ गए।
बुढ़िया ने श्राप दिया—‘चोर पक्षी! तुम्हारा सौंदर्य अब नहीं रहेगा।’
वे काले हो गए। माँ पार्वती ने कहा—‘तुमने मेरे लिए चावल लाए, रंग नहीं, भाव देखा जाता है। अब तुम हिमालय के प्रहरी बनोगे।’”
प्रभव चुप था, जैसे उसकी बाल-गुल्लक में यह कथा एक खनकती सिक्के-सी गिर गई हो।
अब वे हिमालय के सेवक हैं, माँ के प्रिय।
अचानक खुले आकाश हरे भरे बुग्याल, घंटी वाले पशु और ध्वज को देखकर चिल्लाई—“देखो! मंदिर आ गया!”
घड़ी की सुई 5:36 का समय दिखा रही थी।

(मेनका त्रिपाठी)

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