“ना उसने नाम पूछा, ना दाम लिया… बस मेरी माँ बनने की राह आसान कर गया”
शिवानी, 29 वर्ष की, पेशे से टीचर और दिल से बेहद संवेदनशील महिला।
शादी को तीन साल हुए थे। पति राहुल एक कंपनी में सीनियर इंजीनियर थे और अक्सर बाहर प्रोजेक्ट पर रहते थे।
शिवानी सातवें महीने की गर्भवती थी, जब डॉक्टर ने कहा —
“अब आपको आराम की ज़रूरत है, बेहतर होगा आप मायके चली जाएं।”
माँ-बाप पंजाब में रहते थे। राहुल उस वक्त चेन्नई में थे।
राहुल ने फौरन अपने छोटे भाई आरव से कहा कि वो शिवानी को स्टेशन छोड़ दे।
शिवानी भारी बैग और सूजन भरे पाँवों के साथ रेलवे स्टेशन पर पहुँची — लेकिन ट्रेन दो घंटे लेट थी।
आरव ने कहा,
“भाभी, मैं ज़रा ऑफिस का ज़रूरी मेल कर आता हूँ… लौटता हूँ तब तक आप बैठिए।”
वो गया… और फिर लौटकर कभी नहीं आया।
भाग 2: प्लेटफॉर्म पर इंतज़ार और वो पहली मुलाकात
शिवानी स्टेशन की बेंच पर बैठी थी। प्यास लगी थी, पीठ दर्द कर रही थी और हर बीतता मिनट उसे असहाय बना रहा था।
तभी उसकी नजर एक दुबले-पतले, बूढ़े कुली पर पड़ी।
उसकी उम्र 65 से ऊपर रही होगी। सिर पर सफेद टोपी, एक फटी कमीज़, और आँखों में भूख और इज़्ज़त दोनों की झलक।
शिवानी ने इशारा किया —
“बाबा, सामान रखवाना है ट्रेन में। प्लेटफॉर्म नंबर पाँच है।”
बूढ़े ने आंखें झुका कर कहा —
“ठीक है बेटी, पंद्रह रुपये दे देना, बस शाम की रोटी हो जाएगी।”
शिवानी ने सहमति में सिर हिलाया।
भाग 3: जब ज़रूरत और सेवा एक साथ दौड़े
करीब डेढ़ घंटे बाद ट्रेन आने की घोषणा हुई — लेकिन कुली कहीं नहीं दिखा।
शिवानी ने बेचैनी से चारों ओर देखा। अब रात के साढ़े बारह बज चुके थे। प्लेटफॉर्म सुनसान होने लगा था। कुछ लोग सो चुके थे, कुछ मोबाइल में डूबे थे — लेकिन उसकी आंखें बस उस कुली को खोज रही थीं।
तभी दूर से वह हांफता हुआ आता दिखाई दिया।
साँसे तेज़, पसीना छलकता हुआ, पर हाथ में बंधा गमछा और आँखों में वही दयालु संकल्प।
“बिटिया, चिंता ना कर… हम चढ़ा देंगे ट्रेन में।”
भाग 4: जब आखिरी वक्त में सबकुछ बदल गया
शिवानी के पाँव भारी हो चुके थे। ट्रेन आने से कुछ मिनट पहले घोषणा हुई —
“आपकी ट्रेन अब प्लेटफॉर्म नंबर 9 पर आएगी।”
अब उन्हें पुल पार कर जाना था — तीन बैग, भारी पेट और एक बूढ़ा आदमी।
सामने सीढ़ियाँ और पीछे ट्रेन की सीटी।
शिवानी ने कहा —
“बाबा, रहने दो… मैं किसी और को देख लूंगी।”
पर बूढ़ा सुन ही नहीं रहा था।
सारा सामान एक-एक कर उठाया और कांपते पैरों से सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।
भाग 5: वो पल, जो कभी नहीं भुलाया जा सकता
ट्रेन चलने लगी थी। शिवानी ने दौड़ते हुए अपना कोच ढूंढा। रोशनी नहीं थी, शोर नहीं था, पर भीतर एक जंग सी चल रही थी।
शिवानी चढ़ गई। दरवाज़े पर खड़ी थी, और तभी —
वो बूढ़ा कुली दौड़ते हुए आया… एक बैग कोच के पायदान पर रखा… फिर दूसरा… फिर तीसरा।
उसकी सांसें अब भी दौड़ रही थीं।
शिवानी कांपते हाथों से जेब से दस-पाँच रुपये निकालने लगी…
पर वो हाथ बहुत दूर जा चुका था।
वो अब ट्रेन से पीछे खड़ा बस हाथ जोड़कर नमस्ते कर रहा था।
भाग 6: दिल का कर्ज़, जेब से नहीं उतरता
शिवानी की आंखें भर आईं।
एक अजनबी, जिसने ना नाम पूछा, ना पैसा मांगा —
सिर्फ़ सेवा दी… और चला गया।
शिवानी दिल्ली पहुँच गई। कुछ महीने बाद एक प्यारे से बेटे को जन्म दिया।
बेटे का नाम रखा — “करुण”, उस भाव के नाम पर जो उस रात उसे मिला था।
भाग 7: खोज, जो कभी पूरी नहीं हुई
डिलीवरी के बाद शिवानी कई बार स्टेशन गई —
कभी सुबह, कभी दोपहर, कभी रात।
“बाबा कहाँ मिलेंगे?”
किसी को पता नहीं।
“ऐसे तो कई कुली हैं बहन जी… पर जो आप कह रही हो, वैसा कोई बूढ़ा नहीं दिखता।”
वो कुली, वो करुणा, वो नि:स्वार्थ मदद — सब अब बस याद में रह गए।
भाग 8: एक माँ की नई पहचान
आज शिवानी एक NGO चलाती है — “करुण फाउंडेशन”,
जो स्टेशन पर बुजुर्गों, कुलियों और असहायों के लिए भोजन, दवाइयाँ और गर्म कपड़े मुहैया कराता है।
कभी कोई पूछता है —
“ये सब क्यों?”
तो शिवानी सिर्फ़ मुस्कुरा कर कहती है:
“कभी एक बूढ़े आदमी ने बिना कुछ मांगे मेरी ज़िंदगी आसान कर दी थी।
अब मैं उस एहसान को हर दिन किसी ना किसी पर लुटा रही हूँ…”
अंतिम पंक्तियाँ — जो इंसानियत की रूह तक जाएं

हर मदद पैसों से नहीं होती… कुछ इंसान ऐसे मिलते हैं जो हमें सिखा जाते हैं —
कि इंसानियत की सबसे सुंदर भाषा नि:स्वार्थता होती है।
कुछ चेहरे हमारे जीवन से चले जाते हैं,
पर उनका असर — हमारी आत्मा में हमेशा जिंदा रहता है।
शायद किसी और के जीवन में भी कोई “बिना नाम का फरिश्ता” आया हो… जिसे वो आज तक ढूंढ रहा हो।